शुक्रवार, 4 मई 2018

समुदाय संचालित विकास (Society Driven Development)


समुदाय संचालित विकास यानी (Society Driven Development) को सामान्यतया CDD भी कहा जाता है। विकास की इस नई अवधारणा में समुदाय को न केवल विकास का प्रमुख अंग माना जाता है, वरन समुदाय स्वयं ही अपनी विकास योजनाओं का संचालन करता है।
इसके तहत योजनाओं के संचालन की जिम्मेदारी समुदाय को दे दी जाती है, समुदाय के लोग ही योजना को बनाने से लेकर उसके क्रियान्वयन और आगे संचालन में मुख्य भूमिका निभाते हैं, जबकि सरकारी विभाग तकनीकी के स्तर पर उनकी मदद करते हैं।
वर्ष 1970 से सर्वप्रथम विकास में सहभागिता यानी  PARTICIPATION की बात शुरू हुई थी, जबकि 1990 के बाद से विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी विकास कार्यों के लिये धन देने वाली वैश्विक संस्थाओं ने समुदाय संचालित विकास के आधार पर ही योजनाएें चलानी शुरू कीं।
समुदाय संचालित विकास के तहत समुदाय स्वयं अपने संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुऐ अपनी जरूरत की योजनाएें बनाता है। गांव के गरीब ग्रामीणों को भी साझेदार यानी पार्टनर का दर्जा दे दिया जाता है।

समुदाय संचालित विकास की विशेषताएें

1. समुदाय संचालित विकास आवश्यकता पर आधारित होती है।
2. इसमें क्षेत्र की जरूरत के आधार पर समस्याओं के समाधान तलाशे जाते हैं।
3. प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित उपयोग किया जाता है।
4. निर्णयों की शक्ति समुदाय के हाथ में दे दी जाती है।
5. शक्ति का विकेंद्रीकरण समुदाय संचालित विकास की बड़ी विशेषता है।

समुदाय संचालित विकास के लाभ

1. Demand Driven Approach : समुदाय संचालित विकास आवश्यकता यानी पर आधारित होता है।
2. Site Specific Solutions : इसमें क्षेत्र की जरूरत के अनुसार समाधान मिल जाते हैं।
3. Decentralisation (विकेंद्रीयकरण): पंचायतों जैसे स्थानीय प्रशासनिक इकाइयां व संस्थाएें कार्य कराती हैं। इस प्रकार सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है। छोटे-छोटे निर्णयों के लिये सरकार या बड़े अधिकारियों का मुंह नहीं ताकना पड़ता।
4. Institutional Arrangements : समुदाय के लोग स्वयं सहायता समूहों-एनजीओ, संबंधित सरकारी विभागों के अधिकारियों, कर्मियों, ग्राम पंचायत सहित कई संस्थाओं से जुड़े लोग मिलकर कार्य करते हैं। इस प्रकार सामुदायिक सहभागिता के जरिये बहुत से लोगों के ज्ञान का उपयोग होता है, व कार्य बेहतर होते हैं।
5. Participation (भागेदारी): Participatory Development Communication यानी विकास सहभागी संचार के जरिये विभिन्न वर्गों के बीच संचार तथा भागेदारी होती रहती है। हर किसी के उपयोगी विचारों को योजना में शामिल किया जाता है।
6. Low Maintenance Cost (मितव्ययिता) : योजनाओं के संचालन (Running Cost) में मितव्ययिता रहती है।
7. अधिक पारदर्शिता : सरकारी विभागों, समुदाय, सामाजिक संस्थाओं आदि के एक साथ मिलकर कार्य अधिक पारदर्शिता से होते हैं। सबको पता होता है कि क्या कार्य हो रहे हैं, और क्यों तथा किस तरह हो रहे हैं।
8. इस प्रकार कार्यों की गुणवत्ता अन्य किसी प्रविधि से बेहतर होती है।

समुदाय संचालित विकास की हानियां

हर किसी प्रविधि की भांति समुदाय संचालित विकास पद्धति में कार्य करने की भी अनेक हानियां हैं।
1. Elite Domination : अक्सर समर्थ लोग विकास योजनाओं को अपने पक्ष में मोड़कर उनके लाभ हड़प जाते हैं। क्योंकि असमर्थ और योजना के वास्तविक जरूरतमंद लोग समर्थों की उपस्थिति में अपनी बात नहीं रख पाते हैं। इसलिये उन्हें योजनाओं के लाभ भी नहीं मिल पाते हैं।
2. अधिक संस्थाओं की भागेदारी होने के कारण अक्सर उनके बीच में समन्वय स्थापित करने की दिक्कत आती है। इस कारण कार्य समय पर पूरे नहीं हो पाते हैं।
3. लाल फीताशाही भी समुदाय संचालित विकास की राह में बड़ा रोढ़ा है। पुरानी व्यवस्था के अभ्यस्त लोग व अधिकारी जल्दी इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
4. संस्थाएें, सरकारी विभागीय अधिकारी अपनी मानसिकता में परिवर्तन नहीं ला पाते हैं। इस कारण भी समुदाय संचालित विकास का लाभ समाज को नहीं मिल पाता है।
समुदाय संचालित विकास के महत्वपूर्ण अंग: समुदाय संचालित विकास के दो महत्वपूर्ण अंग हैं।
अ. Opinion Leaders : ‘Two Step Theory’ में ओपिनियन लीडर्स की उपयोगिता बताई गई है। ओपिनियन लीडर्स-
1. Heavy Media Users होते हैं।
2. ज्ञान वैशिष्ट्य : उन्हें विषय का विशिष्ट ज्ञान (Specialized knowledge) होता है।
3. वह बड़ी हैसियत (High Esteem) वाले लोग होते हैं।
वहीं कार्ट्ज (Kartz) के अनुसार ओपिनियन लीडर्स की शख्शियत बड़ी व विश्वसनीय होती है। वह ज्ञानवान होते हैं, और समाज में उनकी बात सुनी और मानी जाती है। लोग उन्हें पसंद करते हैं।
ब.Change Agents: चेंज एजेंट्स वे लोग हैं जो समुदाय संचालित विकास की नई अवधारणा को समाज के लोगों को समझाकर इसे उनके लिये ग्राह्य बनाते हैं।
उनका मुख्य कार्य इस बदलाव के लिये भूमिका बनाना होता है।
1. वह मूलत: स्थानीय लोग ही होते हैं।
2. इस प्रकार एक तरह से वह समुदाय एवं सरकारी एजेंसी के बीच फैसीलिटेटर (Facilitator) की भूमिका निभाते हैं।
3. वह संचार के माध्यमों का प्रयोग कर समुदाय के लोगों को उन्हीं की भाषा में योजना के गुण-दोष (खासकर गुण) समझाते हैं।
4. ग्रामीणों से सूचनाएें, उनके विचार लेते हैं, उनकी समस्याओं, आपत्तियों का समाधान तलाशते हैं, और अपने मूल कार्य के उद्देश्य को पूरा करते हुऐ उन्हें योजना के लिये राजी करते हैं।
संदर्भ 
https://www.navinsamachar.com/communication-news-writing/#.Wuy05qSFPIU

ब्रांड प्रबंधन


ब्रांड प्रबंधन को समझने से पूर्व समझें कि ब्रांड क्या है।
ब्रांड किसी कंपनी द्वारा अपने उत्पादों को दी गई वह पहचान है, जो उत्पाद के नाम, लोगो और ट्रेडमार्क आदि के रूप में प्रदर्शित की जाती है।
ब्रांडों का ही कमाल है कि आज कई ऐसी वस्तुएें भी हैं जो अपनी वास्तविक पहचान या नाम के बजाय अपने ब्रांड के नाम से ही जानी जाती हैं।
जैसे: ताले को हरीसन का ताला, अल्मारी को गोदरेज की अल्मारी, वनस्पति घी को डालडा, डिटरजेंट पावडर को सर्फ, टूथ पेस्ट को कोलगेट को उनकी कंपनी के नाम से जाना जाता है।
कुछ ऐसे उत्पाद भी हैं, जिनकी कंपनियों के नाम ही उस उत्पाद के नाम के रूप में स्थापित हो गये हैं, जैसे फोटो स्टेट की जीरोक्स मशीन, टुल्लू पंप व जेसीबी मशीन। गौरतलब है कि जीरोक्स, टुल्लू व जेसीबी कंपनियों के नाम हैं, न कि उत्पाद के लेकिन उत्पाद के नाम के रूप में यही प्रचलन हैं।
ब्रांड का लाभ यह है कि इसके जरिये सामान्य वस्तु को भी असामान्य कीमत पर बेचा जा सकता है।
ब्रांड से एक ओर जहां उच्च गुणवत्ता की उम्मीद की जाती है, तो दूसरी ओर उसके उपभोक्ताओं को किसी ब्रांड वाले उत्पाद के प्रयोग से आम लोगों से हटकर दिखने की आत्म संतुष्टि भी मिलती है।
ब्रांड को विकसित करने में गारंटी, वारंटी जैसी बिक्री बाद सेवाओं की काफी बड़ी भूमिका रहती है, जिसके जरिये उत्पाद के प्रति अपने प्रयोगकर्ताओं, ग्राहकों के मन में अपनत्व, विश्वास का भाव जागृत किया जाता है। और कोई उत्पाद यदि इन तरीकों से ब्रांड के रूप में स्थापित हो जाता है तो फिर ब्रांड की बडी धनराशि में खरीद-बिक्री भी की जाती है।

क्या है ब्रांड :

ब्रांड उत्पाद की कंपनी के नाम व ‘लोगो’का सम्मिश्रण है, जिसकी अपनी छवि से उपभोक्ताओं के बीच उस उत्पाद का जुड़ाव उत्पन्न होता है। ब्रांड की पहचान कंपनी के लोगो व मोनोग्राम से होती है। जैसे एडीडास, नाइकी, बाटा, टाटा आदि ब्रांड के लोगो व मोनोग्राम एक खास तरीके के चिन्ह के साथ लिखे जाते हैं।
आने वाला समय ब्रांड का:
बीते दौर में कुछ गिनी-चुनी चीजें ही ब्रांड के साथ मिलती थीं, जैसे वाहन, गाड़ियां, अल्मारी, टूथपेस्ट, साबुन, तेल, जूते व भोजन सामग्री में चाय।
लेकिन बदलते दौर में कपड़ों के साथ ही सोना, हीरा जैसे महंगे आभूषणों से लेकर भोजन सामग्री में चावल, आटा, दाल, तेल, नमक, चीनी व सब्जी आदि भी ब्रांड के साथ बेचने की प्रक्रिया शुरु हो गई है। और वह दिन दूर नहीं जब अंडे, मांस व फल जैसे उत्पाद भी ब्रांड के नाम से बेचे जाएेंगे।

ब्रांड विकसित करने की प्रक्रिया:

1. गुणवत्ता :
ब्रांड का सर्वप्रमुख गुण उसकी गुणवत्ता है। उपभोक्ता किसी उत्पाद को उसका ब्रांड देखकर सबसे पहले इसलिये खरीदते हैं कि वह उस उत्पाद की गुणवत्ता के प्रति अपनी ओर से बिना किसी जांच किये संतुष्ट महसूस करते हैं। उन्हें पता होता है कि अमुख ब्रांड के उत्पाद की गुणवत्ता हर बार ठीक वैसी ही होगी, जैसी उन्होंने पिछली बार उस उत्पाद में पाई थी।
उदाहरण के लिये यदि उपभोक्ता किसी ब्रांड के सेब या आलू खरीदते हैं तो हमें हर बार समान आकार व स्वाद के सेब या आलू ही प्राप्त होंगे।
लिहाजा, ब्रांड विकसित करने के लिये सबसे पहले उत्पाद की गुणवत्ता तय की जाती है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गुणवत्ता से तात्पर्य उत्पाद की गुणवत्ता सर्वश्रेष्ठ होना नहीं वरन तय मानकों के अनुसार होना है।
2. श्रेष्ठ होने की आत्म संतुष्टि :
किसी ब्रांड के उत्पाद को उपभोक्ता इसलिये भी खरीदते हैं कि उसके प्रयोग से वह सर्वश्रेष्ठ उत्पाद का प्रयोग करने का दंभ पालता है और दूसरों को ऐसा प्रदर्शित कर आत्म संतुष्टि प्राप्त करता है।
इसी भाव के कारण अक्सर धनी वर्ग के उपभोक्ता खासकर वस्त्रों, जूतों व गाड़ियों जैसे प्रदर्शन करने वाले उत्पादों को बड़े शोरूम से खरीदना पसंद करते हैं, और दोस्तों के बीच स्वयं की शेखी बघारते हुऐ उस शोरूम से उत्पाद को खरीदे जाने की बात बढ़-चढ़कर बताते हैं।
वहीं कई लोग जो ऐसे बड़े शोरूम से महंगे दामों में उत्पाद नहीं खरीद पाते वह उस ब्रांड के पुराने उत्पाद फड़ों से खरीदकर झूठी शेखी बघारने से भी गुरेज नहीं करते।
अर्थशास्त्र के सिद्धांतों में भी खासकर लक्जरी यानी विलासिता की वस्तुओं की कीमतों के निर्धारण को मांग व पूर्ति के सिद्धांत से अलग रखा गया है। ब्रांड के नाम पर सामान्यतया उत्पाद अपने वास्तविक दामों से कहीं अधिक दाम पर बेचे जाते हैं, और उपभोक्ता इन ऊंचे दामों को खुश होकर वहन करता है, वरन कई बार कम गुणवत्ता के उत्पादों को भी अधिक दामों में खरीदने से गुरेज नहीं करता।
3. विज्ञापन एवं प्रस्तुतीकरण:
विज्ञापन एवं प्रस्तुतीकरण की ब्रांड के निर्माण में निर्विवाद तौर पर बड़ी भूमिका होती है। विज्ञापन व प्रस्तुतीकरण दो तरह से ब्रांड की छवि के उपभोक्ताओं के मन में विस्तार व स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
पहला, विज्ञापन व प्रस्तुतीकरण से नये उपभोक्ता उत्पाद के प्रति आकर्षित होते हैं। दूसरे, उसे प्रयोग कर चुके उपभोक्ताओं में अपने पसंदीदा ब्रांड के विज्ञापनों को देखकर अन्य लोगों से कुछ अलग होने का भाव जागृत होता है।
4. गारंटी एवं वारंटी :
गारंटी एवं वारंटी खरीद बाद सेवाओं की श्रेणी में आते हैं। यदि किसी उत्पाद को खरीदे जाने के बाद भी कंपनी उसके सही कार्य करने की गारंटी देती है, और कोई कमी आने पर उसे दुरुस्त करने का प्रबंध करती है तो उपभोक्ता उस उत्पाद पर आंख मूँद कर विश्वास कर सकते हैं। यही विश्वास ब्रांड के प्रति उपभोक्ता के जुड़ाव को और मजबूत करता है।
कई बार उपभोक्ता एक ब्रांड को खरीदने के बाद दूसरे ब्रांड के उत्पाद में मौजूद गुणों का लाभ न ले पाने की कमी व निराशा महसूस करता है। गारंटी व वारंटी उसके इस भाव को कम करने तथा खरीदे गये ब्रांड के प्रति उसके प्रेम को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
संदर्भ 
https://www.navinsamachar.com/communication-news-writing/#.Wuy05qSFPIU

टेलीविजन न्यूज

भारतीय पौराणिक ग्रंथ महाभारत की कथा में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के पास बैठे-बैठे महाभारत के युद्व क्षेत्र का आंखों देखा हाल सुनाने का उल्लेख भले ही मिलता हो मगर आधुनिक टेलीविजन के इतिहास को अभी 100 वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं। सन् 1900 में पहली बार रूसी वैज्ञानिक कोंस्तातिन पेस्र्की ने सबसे पहली बार टेलीविजन शब्द का इस्तेमाल चित्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने वाले एक प्रारम्भिक यंत्र के लिए किया था। 1922 के आस-पास पहली बार टेलीविजन का प्रारम्भिक सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ था। 1926 में इंग्लैण्ड के जॉन बेयर्ड और अमेरिका के चाल्र्स फ्रांसिस जेनकिंस ने मैकेनिकल टेलीविजन के जरिए चित्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने का सफल प्रयोग किया।
पहले इलेक्ट्रानिक टेलीविजन का आविष्कार रूसी मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक ब्लादीमिर ज्योर्खिन ने 1927 में किया। हालांकि इसकी दावेदारी जापान, रूस, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन भी करते रहे हैं कि पहला इलेक्ट्रानिक टेलीविजन उनके देश में बनाया गया। बहरहाल 1939 में पहली बार अमेरिकी रेडियो प्रसारण कंपनी आरसीए ने न्यूयार्क विश्व मेले के उद्घाटन और राष्ट्रपति रूजवैल्ट के भाषण का सीधा टेलीविजन प्रसारण किया। बीबीसी रेडियो 1930 में और बीवीसी टेलीविजन 1932 में स्थापित हो गया था। इसने 1936 के आस पास कुछ टीवी कार्यक्रम बनाए भी। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्व छिड़ जाने से टीवी के विकास की रफ्तार कम हो गई।
1 जुलाई 1941 को अमेरिकी कंपनी कोलम्बिया ब्रॉडकास्टिंग सर्विस ने न्यूयार्क टेलीविजन स्टेशन से रोजाना 15 मिनट के न्यूज बुलेटिन की शुरूआत की। यह प्रसारण सीमित दर्शकों के लिए था। विश्वयुद्व की समाप्ति के बाद तकनीकी विकास के दौर में 1946 में रंगीन टेलीविजन के आविष्कार ने टीवी न्यूज के विकास में एक बड़ी छलांग का काम किया। 50 के दशक में अमेरिकी प्रसारण कंपनी एनबीसी और एनसीबीएस ने रंगीन न्यूज बुलेटिन शुरू किए तो बीबीसी टीवी ने भी दैनिक न्यूज बुलेटिन शुरू कर दिए। 1980 में टेड टर्नर ने सीएनएन के 24 घंटे के न्यूज चैनल की शुरूआत की। 24 घंटे का यह न्यूज चैनल जल्द ही लोकप्रिय हो गया और 1986 में स्पेस शटल चैलेजंर के दुघर्टनाग्रस्त होने के सजीव प्रसारण ने इसे बहुत ख्याति प्रदान की। लगभग 10 वर्ष बाद 1989 में ब्रिटेन में भी रूपर्ट मर्डोक ने लन्दन से स्काई न्यूज के नाम से 24 घंटे का न्यूज चैनल शुरू किया जबकि टीवी न्यूज में काफी नाम कमा चुके बीबीसी को 24 घंटे का न्यूज चैनल शुरू करने के लिए 1997 तक इन्तजार करना पड़ा। आज विश्व के प्रायः हर देश में एक से अधिक न्यूज चैनल हैं। पश्चिमी टीवी न्यूज चैनलों का एकाधिकार और दबदबा भी अब कम होता जा रहा है और अल जजीरा जैसे चैनल टीवी खबरों की दुनिया में पश्चिमी एकाधिकार को कड़ी चुनौती देने लगे हैं।




भारत में टेलीविजन का आगमन 1959 में हो गया था। प्रारम्भ में यह माना गया था कि भारत जैसे गरीब देश में इस महंगी टैक्नोलॉजी वाले माध्यम का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे यह धारणा खुद ब खुद बदलती चली गई। 1964 में दूरदर्शन पर पहली बार न्यूज की शुरूआत हुई। शुरू में यह रेडियो यानी आकाशवाणी के अधीन था। इसका असर दूरदर्शन के समाचारों पर भी दिखाई देता था। लेकिन 1982 में दिल्ली एशियाई खेलों के आयोजन, एशियाड के साथ ही देश में रंगीन टेलीविजन की शुरूआत हो गई और यहीं से दूरदर्शन के समाचारों में एक नए युग की शुरूआत भी हुई। इसी दौर में हिंदी के अलावा उर्दू, संस्कृत और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के न्यूज बुलेटिन भी शुरू हुए। संसदीय चुनावों के कवरेज ने दूरदर्शन न्यूज को काफी लोकप्रिय बनाया मगर उसे अभी निजी चैनलों की चुनौती नहीं मिली थी।
भारतीय टेलीविजन में निजी क्षेत्र का खबरों की दुनिया में प्रवेश 1994 में हुआ। पहले जैन टीवी और फिर जी टीवी ने न्यूज बुलेटिन शुरू किए। पहला चौबीस घंटे का न्यूज चैनल भी जैन टीवी का ही था जो अधिक समय तक चल नहीं पाया। जी न्यूज ने 1 फरवरी 1999 को चौबीस घंटे का न्यूज चैनल शुरू किया जो आज भी चल रहा है। इसी बीच बीओआई ने भी न्यूज चैनल शुरू किया, मगर खर्चीले प्रबन्धन ने उसे भी जल्द ही डुबा दिया। लेकिन भारत में टीवी न्यूज को सही मायनों में स्थापित करने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है तो वो है ‘आज तक’। यह 17 जुलाई 1995 को आज तक 20 मिनट के न्यूज बुलेटिन के तौर पर दूरदर्शन में शुरू हुआ था। सुरेन्द्र प्रताप सिंह के कुशल संपादन व प्रस्तुतिकरण ने जल्द ही आजतक को सर्वश्रेष्ठ और विश्वसनीय समाचार बुलेटिन बना दिया। इसकी सफलता की नींव पर 31 दिसम्बर 2000 को आज तक के 24 घंटे के निजी न्यूज चैनल की शुरूआत हुई जो अब भी सर्वश्रेष्ठ बना हुआ है।
आज देश में 100 से अधिक निजी न्यूज चैनल हैं और सब अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ खबरों की दुनिया में अपना प्रदर्शन कर रहे हैं। तकनीक के सस्ते होते जाने से भी टीवी न्यूज का विस्तार तेजी से हुआ है। पहले न्यूज चैनल शुरू करने में 50 करोड़ से अधिक खर्च आता था तो आज महज कुछ करोड़ रूपयों में न्यूज चैनल शुरू हो जाता है। मगर तकनीक सस्ती होने के साथ ही टीवी न्यूज में भी सस्तापन आने लगा है, गम्भीरता और लोक जिम्मेदारी की भावना कम होने से साथ-साथ सनसनी और नाटकीयता बढ़ने लगी है। टीवी न्यूज के भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नही कहे जा सकते, मगर विशेषज्ञ मानते हैं कि यह दौर जल्द ही खत्म हो जाएगा।
संदर्भ 

https://www.navinsamachar.com/communication-news-writing/#.Wuy05qSFPIU



सम्पादन व सम्पादकीय विभाग

सम्पादन व सम्पादकीय विभाग पत्रकारिता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका अथवा अन्य जनसंचार माध्यम का स्तर उसके सम्पादन व सम्पादकीय विभाग पर निर्भर करता है। सम्पादकीय विभाग जितना सक्रिय, योग्य व व्यावहारिक होगा, वह मीडिया उतना ही अधिक प्रचलित व ख्याति प्राप्त होगा। इसलिए पत्रकारिता को समझने के लिए इस कार्य व विभाग की जानकारी होना अति आवश्यक है।
किसी भी समाचार-पत्र या पत्रिका की प्रतिष्ठा, उसका नाम, उसकी छवि उसके संपादक के नाम के साथ बनती-बिगड़ती है। सम्पादक किसी अच्छी फिल्म को बनाने वाले उस निर्देशक की तरह होता है, जिसे हर बार एक अच्छा अखबार या पत्रिका बनानी होती है। इस काम में उसकी प्रतिभा और उसकी कबिलियत तो महत्व रखती ही है, उसकी टीम और उसके सहयोगियों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। इस सम्पादकीय टीम के साथ-साथ जो एक अन्य महत्वपूर्ण चीज होती है। वह है पत्र या पत्रिका का सम्पादकीय पृष्ठ। पत्रिकाओं में जहां सम्पादकीय पृष्ठ प्रारम्भ में होता है वहीं अखबारों में इसकी जगह बीच के पृष्ठों में कहीं होती है।
कुल मिला कर संपादक, सम्पादकीय विभाग और सम्पादकीय पृष्ठ किसी भी पत्र-पत्रिका की सफलता और श्रेष्ठता के सूत्रधार होते हैं। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालयों में समाचार विभिन्न श्रोतों, जैसे संवाददाताओं तथा एजेंसियों से प्राप्त होते हैं। कई बार विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, विभिन्न सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों इत्यादि की ओर से भी प्रेस रिलीज दी जाती हैं। इन सबको समाचार कक्ष में ‘डेस्क’ पर एकत्र किया जाता है। सारी सामग्री अलग-अलग तरह की होती है। उप-सम्पादक इन सब प्राप्त समाचार-सामग्री की छंटनी, वर्गीकरण, आवश्यक सुधार करते हैं, साथ ही काटते-छांटते या विस्तृत करते हैं और उन्हें प्रकाशन योग्य बनाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया ‘सम्पादन’ के अन्तर्गत आती है।
सम्पादकीय विभाग ‘समाचार पत्र का हृदय’ कहा जा सकता है। कुशल सम्पादन पत्र को जीवन्त और प्राणवान बना देता है। सम्पादकीय विभाग मुख्यतः समाचार, लेख, फीचर, कार्टून, स्तम्भ, सम्पादकीय एवं सम्पादकीय टिप्पणियों आदि सारे कार्यों से जुड़ा होता है। यह विभाग सम्पादक या प्रधान सम्पादक के नेतृत्व में कार्य करता है। इनकी सहायता के लिए कार्य करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं, जो सहायक सम्पादक, संयुक्त सम्पादक, समाचार सम्पादक, विशेष सम्पादक व उप सम्पादक इत्यादि होते हैं, जो समाचार संकलन से लेकर सम्पादन की विविध प्रक्रियाओं से विभिन्न स्तरों पर सम्बद्ध होते हैं।
किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका में सम्पादन का कार्य एक चूनौतीपूर्ण कार्य है, जिसे पत्र-पत्रिका का सम्पादन मण्डल पूर्ण करता है। इस सम्पादन मण्डल का मुखिया सम्पादक कहलाता है। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी सामग्री की उपयोगिता व महत्व के लिए सम्पादक ही जिम्मेदार होता है। सम्पादक मण्डल द्वारा पत्र में एक पृष्ठ पर नवीन व समसामयिक विचार, टिप्पणी, लेख एवं समीक्षाएं लिखी जाती हैं, जो राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक अथवा अन्य समसामयिक विषयों पर आधारित हो सकती है। इन टिप्पणियों को सम्पादकीय कहते हैं, और जिस पृष्ठ पर पर यह लिखी जाती हैं, उसे सम्पादकीय पृष्ठ कहते हैं। किसी भी समाचार पत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण पृष्ठ होता है।
हालांकि वर्तमान दौर में समाचार पत्रों में सम्पादक की भूमिका एक रचनाकार पत्रकार से बदलकर प्रबन्धक पत्रकार जैसी हो गयी है मगर इसके बाद भी सम्पादक का महत्व खत्म नहीं हुआ है और आज भी किसी भी पत्रकार के लिए संपादक बनना एक सपने की तरह ही है।सम्पादन एवं सम्पादकीय किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका के लिए महत्वपूर्ण शब्द हैं। सम्पादन का तात्पर्य किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका के लिए समाचारों व लेखों का चयन, उनको क्रमबद्ध करना, सामग्री का प्रस्तुतीकरण निश्चित करना, संशोधित करना, उनकी भाषा, व्याकरण और शैली में सुधार एवं विश्लेषण करना और उन्हें पाठकों के लिए पठनीय बनाना है।
सम्पादन कार्य को सम्पादित करने हेतु सम्पादक के नेतृत्व में कार्य करने वाली टीम को सम्पादकीय मण्डल या सम्पादकीय विभाग कहा जाता है। सम्पादकीय विभाग के प्रत्येक सदस्य का कार्य महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण होता है।
सम्पादकीय विभाग में एक स्टिंगर से लेकर पत्र के सम्पादक तक के अपने-अपने उत्तरदायित्व व योग्यतायें होती हैं। जिनका निर्वाह करते हुये वे एक समाचार पत्र-पत्रिका को पाठकों के बीच लोकप्रिय व पठनीय बनाकर प्रस्तुत करते हैं।सम्पादन का अर्थ



‘सम्पादन’ का शाब्दिक अर्थ कार्य सम्पन्न करना है। किसी भी कार्य को वह अंतिम रूप देना, जिस रूप में उसे प्रस्तुत करना हो, यह ही सम्पादन कहलाता है। किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका में समाचार श्रोतों से समाचार एकत्रित कर उसे पाठकों के लिए पठनीय बनाना ही सम्पादन है।
किसी पुस्तक का विषय या सामयिक पत्र के लेख आदि अच्छी तरह देखकर, उनकी त्रुटियां आदि दूर करके और उनका ठीक क्रम लगा कर उन्हें प्रकाशन के योग्य बनाना भी संपादन है। वास्तव में सम्पादन एक कला है, जिसमें समाचारों, लेखों व किसी समाचार पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जाने वाली सभी तरह की सामग्री का चयन, उसको क्रमबद्ध करना, सामग्री का प्रस्तुतीकरण निश्चित करना, उसे संशोधित करना, उसकी भाषा, व्याकरण और शैली में सुधार करना, विश्लेषण करना आदि सभी कार्य सम्मिलित हैं। पृष्ठों की साज-सज्जा करना, शुद्ध और आकर्षक मुद्रण कराने में सहयोग करना भी ‘सम्पादन’ का अंग है।
पत्रकारिता सन्दर्भ कोश में ‘सम्पादन’ का अर्थ इस प्रकार बताया गया हैः ‘‘अभीष्ट मुद्रणीय सामग्री (समाचारों, लेखों एवं अन्य विविध रचनाओं आदि) का चयन, क्रम-निर्धारण, मुद्रणानुरूप संशोधन-परिमार्जन, साज-सज्जा तथा उसे प्रकाशन-योग्य बनाने के लिए अन्य अपेक्षित प्रक्रियाओं को सम्पन्न करना। आवश्यकता पड़ने पर मुद्रणीय सामग्री से सम्बन्धित प्रस्तावना, पृष्ठभूमि सम्बन्धी वक्तव्य अथवा अभीष्ट टिप्पणी आदि प्रस्तुत करना भी सम्पादन के अन्तर्गत आता है।’’
जे.एडवर्ड मरे के अनुसार – “Because copy editing is an art, the most important ingredient after training and talent, is strong motivation. The copy editor must care. Not only should he know his job, he must love it. Every edition, every day. No art yields to less than maximum effort. The copy editor must be motivated by a fierce professional pride in the high quality of editing.’’‘सम्पादन’ आसान काम नहीं है। यह अत्यन्त परिश्रम-साध्य एवं बौद्धिक कार्य है। इसमें मेधा, निपुणता और अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है। इसलिए सम्पादन कार्य करने वाले व्यक्ति को न केवल सावधानी रखनी होती है, बल्कि अपनी क्षमताओं, अभिरूचि तथा निपुणता का पूरा-पूरा उपयोग भी करना होता है। उसे अपने कार्य का पूरा ज्ञान ही नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें कार्य के प्रति एकनिष्ठ लगाव भी होना चाहिए।
समाचार-पत्र कार्यालय में विभिन्न श्रोतों से समाचार प्राप्त होते हैं। संवाददाता (रिपोर्टर), एजेंसियां व कई बार विभिन्न संस्थाओं, राजनीतिक दलों इत्यादि की ओर से प्रेस रिलीज प्रेषित किए जाते हैं। इन सबको समाचार-कक्ष में ‘डेस्क’ पर एकत्र किया जाता है। सारी सामग्री अलग-अलग तरह की होती है। उप-सम्पादक इन सब प्राप्त समाचार-सामग्री की छंटनी व वर्गीकरण करते हैं, तथा उनमें यथावश्यक उनमें सुधार करते हैं, काटते-छांटते या विस्तृत करते हैं और उन्हें प्रकाशन योग्य बनाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया ‘सम्पादन’ के अन्तर्गत आती है।
इस प्रक्रिया के अंतर्गत अनेक श्रोतों से प्राप्त समाचारों को संघनित कर मिलाना, एक आदर्श समाचार-कथा (न्यूज स्टोरी) तैयार करना, आवश्यकता पड़ने पर उसका पुनर्लेखन करना इत्यादि बातें सम्मिलित हैं। सम्पादक केवल काट-छांट तक ही सीमित नहीं हैं, उसमें अनुवाद करना, समाचारों को एक तरह से अपने रंग में रंगना भी शामिल है। वैचारिक दृष्टि से, विशेष रूप से कई बार समाचार-पत्र की रीति-नीति के अनुसार सम्पादक के जरिए उनमें वैचारिक चमक भी पैदा की जाती है।
अतः सम्पादन पत्रकारिता में वह कला है जो समाचार को पाठकों के लिए रूचिकर, मनोरंजक, तथ्यपूर्ण व ज्ञानवर्धक बनाकर परोसती है।

संदर्भ 
https://www.navinsamachar.com/communication-news-writing/#.Wuy05qSFPIU

समाचार संपादन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए वह एक जिज्ञासु प्राणी है। मनुष्य जिस समुह में, जिस समाज में और जिस वातावरण में रहता है वह उस बारे में जानने को उत्सुक रहता है। अपने आसपास घट रही घटनाओं के बारे में जानकर उसे एक प्रकार के संतोष, आनंद और ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके लिये उसने प्राचीन काल से ही तमाम तरह के तरीकों, विधियों और माध्यमों को खोजा और विकसित किया। पत्र के जरिये समाचार प्राप्त करना इन माध्यमों में सर्वाधिक पुराना माध्यम है जो लिपि और डाक व्यवस्था के विकसित होने के बाद अस्तित्व में आया। पत्र के जरिये अपने प्रियजनों मित्रों और शुभाकांक्षियों को अपना समाचार देना और उनका समाचार पाना आज भी मनुष्य के लिये सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। समाचारपत्र रेडियो टेलिविजन समाचार प्राप्ति के आधुनिकतम साधन हैं जो मुद्रण रेडियो टेलीविजन जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद अस्तित्व में आये हैं।

समाचार की परिभाषा

लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर ही करते हैं। सुख दुख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सव में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ ही होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव कस्बे या शहर की कॉलोनी में बिजली पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। विचार घटनाएं और समस्यों से ही समाचार का आधार तैयार होता है। लोग अपने समय की घटनाओं रूझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उनपर विचार करते हैं और इन सबको लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन प्रक्रिया के केन्द्र में इनके कारणों प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। समाचार के रूप में इनका महत्व इन्हीं कारकों से निर्धारित होना चाहिये। किसी भी चीज का किसी अन्य पर पड़ने वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से ही समाचार की अवधारणा का विकास होता है। किसी भी घटना विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकतें हैं कि यह समाचार बनने योग्य है।
समाचार किसी बात को लिखने या कहने का वह तरीका है जिसमें उस घटना, विचार, समस्या के सबसे अहम तथ्यों या पहलुओं के सबसे पहले बताया जाता है और उसके बाद घटते हुये महत्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरु होता है।
  •       किसी नई घटना की सूचना ही समाचार है : डॉ निशांत सिंह
  •       किसी घटना की नई सूचना समाचार है : नवीन चंद्र पंत
  •       वह सत्य घटना या विचार जिसे जानने की अधिकाधिक लोगों की रूचि हो : नंद किशोर त्रिखा
  •       किसी घटना की असाधारणता की सूचना समाचार है : संजीव भनावत
  •       ऐसी ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में लोगों को जानकारी न हो : रामचंद्र वर्मा

समाचार के मूल्य

1 व्यापकता : समाचार का सीधा अर्थ है-सूचना। मनुष्य के आस दृ पास और चारों दिशाओं में घटने वाली सूचना। समाचार को अंग्रेजी के न्यूज का हिन्दी समरुप माना जाता है। न्यूज का अर्थ है चारों दिशाओं अर्थात नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट और साउथ की सूचना। इस प्रकार समाचार का अर्थ पुऐ चारों दिशाओं में घटित घटनाओं की सूचना।
2 नवीनता: जिन बातों को मनुष्य पहले से जानता है वे बातें समाचार नही बनती। ऐसी बातें समाचार बनती है जिनमें कोई नई सूचना, कोई नई जानकारी हो। इस प्रकार समाचार का मतलब हुआ नई सूचना। अर्थात समाचार में नवीनता होनी चाहिये।
3 असाधारणता: हर नई सूचना समाचार नही होती। जिस नई सूचना में समाचारपन होगा वही नई सूचना समाचार कहलायेगी। अर्थात नई सूचना में कुछ ऐसी असाधारणता होनी चाहिये जो उसमें समाचारपन पैदा करे। काटना कुत्ते का स्वभाव है। यह सभी जानते हैं। मगर किसी मनुष्य द्वारा कुत्ते को काटा जाना समाचार है क्योंकि कुत्ते को काटना मनुष्य का स्वभाव नही है। कहने का तात्पर्य है कि नई सूचना में समाचार बनने की क्षमता होनी चाहिये।
4 सत्यता और प्रमाणिकता : समाचार में किसी घटना की सत्यता या तथ्यात्मकता होनी चाहिये। समाचार अफवाहों या उड़ी-उड़ायी बातों पर आधारित नही होते हैं। वे सत्य घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी होते हैं। सत्यता या तथ्यता होने से ही कोई समाचार विश्वसनीय और प्रमाणिक होते हैं।
5 रुचिपूर्णता: किसी नई सूचना में सत्यता और समाचारपन होने से हा वह समाचार नहीं बन जाती है। उसमें अधिक लोगों की दिसचस्पी भी होनी चाहिये। कोई सूचना कितनी ही आसाधरण क्यों न हो अगर उसमे लोगों की रुचि नही है तो वह सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा किसी सामान्य व्यक्ति को काटे जाने की सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा काटे गये व्यक्ति को होने वाले गंभीर बीमारी की सूचना समाचार बन जायेगी क्योंकि उस महत्वपूर्ण व्यक्ति में अधिकाधिक लोगों की दिचस्पी हो सकती है।
6 प्रभावशीलता : समाचार दिलचस्प ही नही प्रभावशील भी होने चाहिये। हर सूचना व्यक्तियों के किसी न किसी बड़े समूह, बड़े वर्ग से सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी होती है। अगर किसी घटना की सूचना समाज के किसी समूह या वर्ग को प्रभावित नही करती तो उस घटना की सूचना का उनके लिये कोई मतलब नही होगा।
7 स्पष्टता : एक अच्छे समाचार की भाषा सरल, सहज और स्पष्ट होनी चाहिये। किसी समाचार में दी गयी सूचना कितनी ही नई, कितनी ही असाधारण, कितनी ही प्रभावशाली क्यों न हो अगर वह सूचना सरल और स्पष्ट भाष में न हो तो वह सूचना बेकार साबित होगी क्योंकि ज्यादातर लोग उसे समझ नहीं पायेंगे। इसलिये समाचार की भाषा सीधीऔर स्पष्ट होनी चाहिये।उल्टा पिरामिड शैली

ऐतिहासिक विकास

इस सिद्धांत का प्रयोग 19 वीं सदी के मध्य से शुरु हो गया था, लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ था। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ संदेश के जरिये भेजनी पड़ती थी, जिसकी सेवायें अनियमित, महंगी और दुर्लभ थी। यही नहीं कई बार तकनीकी कारणों से टेलीग्राफ सेवाओं में बाधा भी आ जाती थी। इसलिये संवाददाताओं को किसी खबर कहानी लिखने के बजाये संक्षेप में बतानी होती थी और उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य और सूचनाओं की जानकारी पहली कुछ लाइनों में ही देनी पड़ती थी।

लेखन प्रक्रिया

उल्टा पिरामिड सिद्धांत : उल्टा पिरामिड सिद्धांत समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है। यह समाचार लेखन का सबसे सरल, उपयोगी और व्यावहारिक सिद्धांत है। समाचार लेखन का यह सिद्धांत कथा या कहनी लेखन की प्रक्रिया के ठीक उलट है। इसमें किसी घटना, विचार या समस्या के सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों या जानकारी को सबसे पहले बताया जाता है, जबकि कहनी या उपन्यास में क्लाइमेक्स सबसे अंत में आता है। इसे उल्टा पिरामिड इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना पिरामिड के निचले हिस्से में नहीं होती है और इस शैली में पिरामिड को उल्टा कर दिया जाता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना पिरामिड के सबसे उपरी हिस्से में होती है और घटते हुये क्रम में सबसे कम महत्व की सूचनायें सबसे निचले हिस्से में होती है।समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली के तहत लिखे गये समाचारों के सुविधा की दृष्टि से मुख्यतः तीन हिस्सों में विभाजित किया जाता है-मुखड़ा या इंट्रो या लीड, बॉडी और निष्कर्ष या समापन। इसमें मुखड़ा या इंट्रो समाचार के पहले और कभी-कभी पहले और दूसरे दोनों पैराग्राफ को कहा जाता है। मुखड़ा किसी भी समाचार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों और सूचनाओं को लिखा जाता है। इसके बाद समाचार की बॉडी आती है, जिसमें महत्व के अनुसार घटते हुये क्रम में सूचनाओं और ब्यौरा देने के अलावा उसकी पृष्ठभूमि का भी जिक्र किया जाता है। सबसे अंत में निष्कर्ष या समापन आता है। समाचार लेखन में निष्कर्ष जैसी कोई चीज नहीं होती है और न ही समाचार के अंत में यह बताया जाता है कि यहां समाचार का समापन हो गया है।
मुखड़ा या इंट्रो या लीड : उल्टा पिरामिड शैली में समाचार लेखन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुखड़ा लेखन या इंट्रो या लीड लेखन है। मुखड़ा समाचार का पहला पैराग्राफ होता है, जहां से कोई समाचार शुरु होता है। मुखड़े के आधार पर ही समाचार की गुणवत्ता का निर्धारण होता है। एक आदर्श मुखड़ा में किसी समाचार की सबसे महत्वपूर्ण सूचना आ जानी चाहिये और उसे किसी भी हालत में 35 से 50 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिये। किसी मुखड़े में मुख्यतः छह सवाल का जवाब देने की कोशिश की जाती है दृ क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहां हुआ, कब हुआ, क्यों और कैसे हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि एक आदर्श मुखड़े में सभी छह ककार का जवाब देने के बजाये किसी एक मुखड़े को प्राथमिकता देनी चाहिये। उस एक ककार के साथ एक-दो ककार दिये जा सकते हैं।

बॉडी: समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड लेखन शैली में मुखड़े में उल्लिखित तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण समाचार की बॉडी में होती है। किसी समाचार लेखन का आदर्श नियम यह है कि किसी समाचार को ऐसे लिखा जाना चाहिये, जिससे अगर वह किसी भी बिन्दु पर समाप्त हो जाये तो उसके बाद के पैराग्राफ में ऐसा कोई तथ्य नहीं रहना चाहिये, जो उस समाचार के बचे हुऐ हिस्से की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हो। अपने किसी भी समापन बिन्दु पर समाचार को पूर्ण, पठनीय और प्रभावशाली होना चाहिये। समाचार की बॉडी में छह ककारों में से दो क्यों और कैसे का जवाब देने की कोशिश की जाती है। कोई घटना कैसे और क्यों हुई, यह जानने के लिये उसकी पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य और उसके व्यापक संदर्भों को खंगालने की कोशिश की जाती है। इसके जरिये ही किसी समाचार के वास्तविक अर्थ और असर को स्पष्ट किया जा सकता है।
निष्कर्ष या समापन : समाचार का समापन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि न सिर्फ उस समाचार के प्रमुख तथ्य आ गये हैं बल्कि समाचार के मुखड़े और समापन के बीच एक तारतम्यता भी होनी चाहिये। समाचार में तथ्यों और उसके विभिन्न पहलुओं को इस तरह से पेश करना चाहिये कि उससे पाठक को किसी निर्णय या निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिले।

समाचार संपादन

समाचार संपादन का कार्य संपादक का होता है। संपादक प्रतिदिन उपसंपादकों और संवाददाताओं के साथ बैठक कर प्रसारण और कवरेज के निर्देश देते हैं। समाचार संपादक अपने विभाग के समस्त कार्यों में एक रूपता और समन्वय स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

संपादन की प्रक्रिया

रेडियो में संपादन का कार्य प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त होता है।
1. विभिन्न श्रोतों से आने वाली खबरों का चयन
2. चयनित खबरों का संपादन :  रेडियो के किसी भी स्टेशन में  खबरों के आने के कई स्रोत होते हैं। जिनमें संवाददाता, फोन, जनसंपर्क, न्यूज एजेंसी, समाचार पत्र और आकाशवाणी मुख्यालय प्रमुख हैं। इन स्रोतों से आने वाले समाचारों को राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर खबरों का चयन किया जाता है।  यह कार्य विभाग में बैठे उपसंपादक का होता है। उदाहरण के लिए यदि हम आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र के लिए समाचार बुलेटिन तैयार कर रहे हैं तो हमें लोकल याप्रदेश स्तर की खबर को प्राथमिकता देनी चाहिए। तत् पश्चात् चयनित खबरों का भी संपादन किया जाना आवश्यक होता है। संपादन की इस प्रक्रिया में बुलेटिन की अवधि को ध्यान में रखना जरूरी होता है। किसी रेडियो बुलेटिन की अवधि 5, 10 या अधिकतम 15मिनिट होती है।

संपादन के महत्वपूर्ण चरण

1.  समाचार आकर्षक होना चाहिए।
2.  भाषा सहज और सरल हो।
3.  समाचार का आकार बहुत बड़ा और उबाऊ नहीं होना चाहिए।
4. समाचार लिखते समय आम बोल-चाल की भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
5. शीर्षक विषय के अनुरूप होना चाहिए।
6.  समाचार में प्रारंभ से अंत तक तारतम्यता और रोचकता होनी चाहिए।
7.  कम शब्दों में समाचार का ज्यादा से ज्यादा विवरण होना चाहिए।
8.  रेडियो बुलेटिन के प्रत्येक समाचार में श्रोताओं के लिए सम्पूर्ण जानकारी होना
 चाहिये ।
9.   संभव होने पर समाचार स्रोत का उल्लेख होना चाहिए।
10.  समाचार छोटे वाक्यों में लिखा जाना चाहिए।
11.  रेडियो के सभी श्रोता पढ़े लिखे नहीं होते, इस बात को ध्यान में रखकर भाषा और शब्दों का चयन किया जाना चाहिए।
12. रेडियो श्रव्य माध्यम है अतः समाचार की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि एक ही बार सुनने पर समझ आ जाए।
13. समाचार में तात्कालिकता होना अत्यावश्यक है। पुराना समाचार होने पर भी इसे अपडेट कर प्रसारित करना चाहिए।
14. समाचार लिखते समय व्याकरण और चिह्नो पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, ताकि समाचार वाचक आसानी से पढ़ सके।

समाचार संपादन के तत्व

संपादन की दृष्टि से किसी समाचार के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
1. शीर्षक- किसी भी समाचार का शीर्षक उस समाचार की आत्मा होती है। शीर्षक के माध्यम से न केवल श्रोता किसी समाचार को पढ़ने के लिए प्रेरित होता है, अपितु शीर्षकों के द्वारा वह समाचार की विषय-वस्तु को भी समझ लेता है। शीर्षक का विस्तार समाचार के महत्व को दर्शाता है। एक अच्छे शीर्षक में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं-
1.  शीर्षक बोलता हुआ हो। उसके पढ़ने से समाचार की विषय-वस्तु का आभास  हो जाए।
2.  शीर्षक तीक्ष्ण एवं सुस्पष्ट हो। उसमें श्रोताओं को आकर्षित करने की क्षमता हो।
3.  शीर्षक वर्तमान काल में लिखा गया हो। वर्तमान काल मे लिखे गए शीर्षक घटना की ताजगी के द्योतक होते हैं।
4. शीर्षक में यदि आवश्यकता हो तो सिंगल-इनवर्टेड कॉमा का प्रयोग करना चाहिए। डबल इनवर्टेड कॉमा अधिक स्थान घेरते हैं।
5.  अंग्रेजी अखबारों में लिखे जाने वाले शीर्षकों के पहले ‘ए’ ‘एन’, ‘दी’ आदि भाग का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। यही नियम हिन्दी में लिखे शीर्षकों पर भी लागू होता है।
6. शीर्षक को अधिक स्पष्टता और आकर्षण प्रदान करने के लिए सम्पादक या   उप-सम्पादक का सामान्य ज्ञान ही अन्तिम टूल या निर्णायक है।
7.  शीर्षक में यदि किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया जाना आवश्यक हो तो  उसे एक ही पंक्ति में लिखा जाए। नाम को तोड़कर दो पंक्तियों में लिखने से  शीर्षक का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है।
8.  शीर्षक कभी भी कर्मवाच्य में नहीं लिखा जाना चाहिए।
 
2. आमुख- आमुख लिखते समय ‘पाँच डब्ल्यू’ तथा एक-एच के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अर्थात् आमुख में समाचार से संबंधित छह प्रश्न-Who, When, Where, What और How का अंतर पाठक को मिल जाना चाहिए। किन्तु वर्तमान में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है। आज छोटे-से-छोटे आमुख लिखने की प्रवृत्ति तेजी पकड़ रही है। फलस्वरूप इतने प्रश्नों का उत्तर एक छोटे आमुख में दे सकना सम्भव नहीं है। एक आदर्श आमुख में 20 से 25 शब्द होना चाहिए।
 
3. समाचार का ढाँचा- समाचार के ढाँचे में महत्वपूर्ण तथ्यों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। सामान्यतः कम से कम 150 शब्दों तथा अधिकतम 400 शब्दों में लिखा जाना चाहिए। श्रोताओं को अधिक लम्बे समाचार आकर्षित नहीं करते हैं।
 समाचार सम्पादन में समाचारों की निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-
  1. समाचार किसी कानून का उल्लंघन तो नहीं करता है।
  2.  समाचार नीति के अनुरूप हो।
  3.  समाचार तथ्याधारित हो।
  4.  समाचार को स्थान तथा उसके महत्व के अनुरूप विस्तार देना।
  5.  समाचार की भाषा पुष्ट एवं प्रभावी है या नहीं। यदि भाषा नहीं है तो उसे   पुष्ट बनाएँ।
  6.  समाचार में आवश्यक सुधार करें अथवा उसको पुर्नलेखन के लिए वापस   कर दें।
  7.  समाचार का स्वरूप सनसनीखेज न हो।
  8.  अनावश्यक अथवा अस्पस्ट शब्दों को समाचार से हटा दें।
  9.  ऐसे समाचारों को ड्राप कर दिया जाए, जिनमें न्यूज वैल्यू कम हो और उनका उद्देश्य किसी का प्रचार मात्र हो।
 10. समाचार की भाषा सरल और सुबोध हो।
 11. समाचार की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न हो।
 12. वाक्यों में आवश्यकतानुसार विराम, अद्र्धविराम आदि संकेतों का समुचित प्रयोग हो।
 13.  समाचार की भाषा में एकरूपता होना चाहिए।
 14.    समाचार के महत्व के अनुसार बुलेटिन में उसको स्थान प्रदान करना।
समाचार-सम्पादक की आवश्यकताएँ
एक अच्छे सम्पादक अथवा उप-सम्पादक के लिए आवश्यक होता है कि वह समाचार जगत में अपने ज्ञान-वृद्धि के लिए निम्नांकित पुस्तकों को अपने संग्रहालय में अवश्य रखें-
1. सामान्य ज्ञान की पुस्तकें।
2. एटलस।
3. शब्दकोश।
4. भारतीय संविधान।
5. प्रेस विधियाँ।
6. इनसाइक्लोपीडिया।
7. मन्त्रियों की सूची।
8. सांसदों एवं विधायकों की सूची।
9. प्रशासन व पुलिस अधिकारियों की सूची।
10. ज्वलन्त समस्याओं सम्बन्धी अभिलेख।
11. भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) पुस्तक।
12. दिवंगत नेताओं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिलेख।
13. महत्वपूर्ण व्यक्तियों व अधिकारियों के नाम, पते व फोन नम्बर।
14. पत्रकारिता सम्बन्धी नई तकनीकी पुस्तकें।
15. उच्चारित शब्द

समाचार के स्रोत

कभी भी कोई समाचार निश्चित समय या स्थान पर नहीं मिलते। समाचार संकलन के लिए संवाददाताओं को फील्ड में घूमना होता है। क्योंकि कहीं भी कोई ऐसी घटना घट सकती है, जो एक महत्वपूर्ण समाचार बन सकती है। समाचार प्राप्ति के कुछ महत्वपूर्ण स्रोत निम्न हैं-
1. संवाददाता- टेलीविजन और समाचार-पत्रों में संवाददाताओं की नियुक्ति ही इसलिए होती हैकि वह दिन भर की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकलन करें और उन्हें समाचार का स्वरूप दें।
2. समाचार समितियाँ- देश-विदेश में अनेक ऐसी समितियाँ हैं जो विस्तृत क्षेत्रों के समाचारों को संकलित करके अपने सदस्य अखबारों और टीवी को प्रकाशन और प्रसारण के लिए प्रस्तुत करती हैं। मुख्य समितियों में पी.टी.आई. (भारत), यू.एन.आई. (भारत), ए.पी. (अमेरिका),  ए.एफ.पी. (फ्रान्स), रॉयटर (ब्रिटेन)।
3. प्रेस विज्ञप्तियाँ- सरकारी विभाग, सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत प्रतिष्ठान तथा अन्य व्यक्ति या संगठन अपने से सम्बन्धित समाचार को सरल और स्पष्ट भाषा में  लिखकर ब्यूरो आफिस में प्रसारण के लिए भिजवाते हैं। सरकारी विज्ञप्तियाँ चार प्रकार की होती हैं।
(अ) प्रेस कम्युनिक्स- शासन के महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस कम्युनिक्स के माध्यम से समाचार-पत्रों को पहुँचाए जाते हैं। इनके सम्पादन की आवश्यकता नहीं होती है। इस रिलीज के बाएँ ओर सबसे नीचे कोने पर सम्बन्धित विभाग का नाम, स्थान और निर्गत करने की तिथि अंकित होती है। जबकि टीवी के लिए रिर्पोटर स्वयं जाता है
(ब) प्रेस रिलीज-शासन के अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस रिलीज के द्वारा समाचार-पत्र और टी.वी. चैनल के कार्यालयों को प्रकाशनार्थ भेजे जाते हैं।
(स) हैण्ड आउट- दिन-प्रतिदिन के विविध विषयों, मन्त्रालय के क्रिया-कलापों की सूचना हैण्ड-आउट के माध्यम से दी जाती है। यह प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो द्वारा प्रसारित किए जाते हैं।
(द) गैर-विभागीय हैण्ड आउट- मौखिक रूप से दी गई सूचनाओं को गैर-विभागीय हैण्ड आउट के माध्यम से प्रसारित किया जाता है।
4. पुलिस विभाग- सूचना का सबसे बड़ा केन्द्र पुलिस विभाग का होता है। पूरे जिले में होनेवाली सभी घटनाओं की जानकारी पुलिस विभाग की होती है, जिसे पुलिसकर्मी-प्रेस के प्रभारी संवाददाताओं को बताते हैं।
5. सरकारी विभाग- पुलिस विभाग के अतिरिक्त अन्य सरकारी विभाग समाचारों के केन्द्र होते हैं। संवाददाता स्वयं जाकर खबरों का संकलन करते हैं अथवा यह विभाग अपनीउपलब्धियों को समय-समय पर प्रकाशन हेतु समाचार-पत्र और टीवी कार्यालयों को भेजते रहते हैं।
6. चिकित्सालय- शहर के स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए सरकारी चिकित्सालयों अथवा बड़े प्राइवेट अस्पतालों से महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
7. कॉरपोरेट आफिस- निजी क्षेत्र की कम्पनियों के आफिस अपनी कम्पनी से सम्बन्धित समाचारों को देने में दिलचस्पी रखते हैं। टेलीविजन में कई चैनल व्यापार पर आधारित हैं।
8. न्यायालय- जिला अदालतों के फैसले व उनके द्वारा व्यक्ति या संस्थाओं को दिए गए निर्देश समाचार के प्रमुख स्रोत हैं।
9. साक्षात्कार- विभागाध्यक्षों अथवा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार समाचार के महत्वपूर्ण अंग होते हैं।
10. समाचारों का फॉलो-अप या अनुवर्तन- महत्वपूर्ण घटनाओं की विस्तृत रिपोर्ट रुचिकर समाचार बनते हैं। दर्शक चाहते हैं कि बड़ी घटनाओं के सम्बन्ध में उन्हें सविस्तार जानकारी मिलती रहे। इसके लिए संवाददाताओं को घटनाओं की तह तक जाना पड़ता है।
11. पत्रकार वार्ता- सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थान अक्सर अपनी उपलब्धियों को प्रकाशित करने के लिए पत्रकारवार्ता का आयोजन करते हैं। उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य समृद्ध समाचारों को जन्म देते हैं।
उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त सभा, सम्मेलन, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम,विधानसभा, संसद, मिल, कारखाने और वे सभी स्थल जहाँ सामाजिक जीवन की घटना मिलती है, समाचार के महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं।

संदर्भ 
https://www.navinsamachar.com/communication-news-writing/#.Wuy05qSFPIU

समाचार लेखन के मुख्य तत्व

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए वह एक जिज्ञासु प्राणी है। मनुष्य जिस समुह में, जिस समाज में और जिस वातावरण में रहता है वह उस बारे में जानने को उत्सुक रहता है। अपने आसपास घट रही घटनाओं के बारे में जानकर उसे एक प्रकार के संतोष, आनंद और ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके लिये उसने प्राचीन काल से ही तमाम तरह के तरीकों, विधियों और माध्यमों को खोजा और विकसित किया। पत्र के जरिये समाचार प्राप्त करना इन माध्यमों में सर्वाधिक पुराना माध्यम है जो लिपि और डाक व्यवस्था के विकसित होने के बाद अस्तित्व में आया। पत्र के जरिये अपने प्रियजनों मित्रों और शुभाकांक्षियों को अपना समाचार देना और उनका समाचार पाना आज भी मनुष्य के लिये सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। समाचारपत्र रेडियो टेलिविजन समाचार प्राप्ति के आधुनिकतम साधन हैं जो मुद्रण रेडियो टेलीविजन जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद अस्तित्व में आये हैं।
समाचार की परिभाषा
लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर ही करते हैं। सुख दुख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सव में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ ही होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव कस्बे या शहर की कॉलोनी में बिजली पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। विचार घटनाएं और समस्यों से ही समाचार का आधार तैयार होता है। लोग अपने समय की घटनाओं रूझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उनपर विचार करते हैं और इन सबको लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन प्रक्रिया के केन्द्र में इनके कारणों प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। समाचार के रूप में इनका महत्व इन्हीं कारकों से निर्धारित होना चाहिये। किसी भी चीज का किसी अन्य पर पड़ने वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से ही समाचार की अवधारणा का विकास होता है। किसी भी घटना विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकतें हैं कि यह समाचार बनने योग्य है।
समाचार किसी बात को लिखने या कहने का वह तरीका है जिसमें उस घटना, विचार, समस्या के सबसे अहम तथ्यों या पहलुओं के सबसे पहले बताया जाता है और उसके बाद घटते हुये महत्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरु होता है।
किसी नई घटना की सूचना ही समाचार है : डॉ निशांत सिंह
किसी घटना की नई सूचना समाचार है : नवीन चंद्र पंत
वह सत्य घटना या विचार जिसे जानने की अधिकाधिक लोगों की रूचि हो :
नंद किशोर त्रिखा
किसी घटना की असाधारणता की सूचना समाचार है : संजीव भनावत
ऐसी ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में लोगों को जानकारी न हो : रामचंद्र वर्मा
समाचार के मूल्य
1 व्यापकता : समाचार का सीधा अर्थ है-सूचना। मनुष्य के आस दृ पास और चारों दिशाओं में घटने वाली सूचना। समाचार को अंग्रेजी के न्यूज का हिन्दी समरुप माना जाता है। न्यूज का अर्थ है चारों दिशाओं अर्थात नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट और साउथ की सूचना। इस प्रकार समाचार का अर्थ पुऐ चारों दिशाओं में घटित घटनाओं की सूचना।
2 नवीनता: जिन बातों को मनुष्य पहले से जानता है वे बातें समाचार नही बनती। ऐसी बातें समाचार बनती है जिनमें कोई नई सूचना, कोई नई जानकारी हो। इस प्रकार समाचार का मतलब हुआ नई सूचना। अर्थात समाचार में नवीनता होनी चाहिये।
3 असाधारणता: हर नई सूचना समाचार नही होती। जिस नई सूचना में समाचारपन होगा वही नई सूचना समाचार कहलायेगी। अर्थात नई सूचना में कुछ ऐसी असाधारणता होनी चाहिये जो उसमें समाचारपन पैदा करे। काटना कुत्ते का स्वभाव है। यह सभी जानते हैं। मगर किसी मनुष्य द्वारा कुत्ते को काटा जाना समाचार है क्योंकि कुत्ते को काटना मनुष्य का स्वभाव नही है। कहने का तात्पर्य है कि नई सूचना में समाचार बनने की क्षमता होनी चाहिये।
4 सत्यता और प्रमाणिकता : समाचार में किसी घटना की सत्यता या तथ्यात्मकता होनी चाहिये। समाचार अफवाहों या उड़ी-उड़ायी बातों पर आधारित नही होते हैं। वे सत्य घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी होते हैं। सत्यता या तथ्यता होने से ही कोई समाचार विश्वसनीय और प्रमाणिक होते हैं।
5 रुचिपूर्णता: किसी नई सूचना में सत्यता और समाचारपन होने से हा वह समाचार नहीं बन जाती है। उसमें अधिक लोगों की दिसचस्पी भी होनी चाहिये। कोई सूचना कितनी ही आसाधरण क्यों न हो अगर उसमे लोगों की रुचि नही है तो वह सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा किसी सामान्य व्यक्ति को काटे जाने की सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा काटे गये व्यक्ति को होने वाले गंभीर बीमारी की सूचना समाचार बन जायेगी क्योंकि उस महत्वपूर्ण व्यक्ति में अधिकाधिक लोगों की दिचस्पी हो सकती है।
6 प्रभावशीलता : समाचार दिलचस्प ही नही प्रभावशील भी होने चाहिये। हर सूचना व्यक्तियों के किसी न किसी बड़े समूह, बड़े वर्ग से सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी होती है। अगर किसी घटना की सूचना समाज के किसी समूह या वर्ग को प्रभावित नही करती तो उस घटना की सूचना का उनके लिये कोई मतलब नही होगा।
7 स्पष्टता : एक अच्छे समाचार की भाषा सरल, सहज और स्पष्ट होनी चाहिये। किसी समाचार में दी गयी सूचना कितनी ही नई, कितनी ही असाधारण, कितनी ही प्रभावशाली क्यों न हो अगर वह सूचना सरल और स्पष्ट भाष में न हो तो वह सूचना बेकार साबित होगी क्योंकि ज्यादातर लोग उसे समझ नहीं पायेंगे। इसलिये समाचार की भाषा सीधीऔर स्पष्ट होनी चाहिये।उल्टा पिरामिड शैली
ऐतिहासिक विकास
इस सिद्धांत का प्रयोग 19 वीं सदी के मध्य से शुरु हो गया था, लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ था। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ संदेश के जरिये भेजनी पड़ती थी, जिसकी सेवायें अनियमित, महंगी और दुर्लभ थी। यही नहीं कई बार तकनीकी कारणों से टेलीग्राफ सेवाओं में बाधा भी आ जाती थी। इसलिये संवाददाताओं को किसी खबर कहानी लिखने के बजाये संक्षेप में बतानी होती थी और उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य और सूचनाओं की जानकारी पहली कुछ लाइनों में ही देनी पड़ती थी।
लेखन प्रक्रिया:
उल्टा पिरामिड सिद्धांत : उल्टा पिरामिड सिद्धांत समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है। यह समाचार लेखन का सबसे सरल, उपयोगी और व्यावहारिक सिद्धांत है। समाचार लेखन का यह सिद्धांत कथा या कहनी लेखन की प्रक्रिया के ठीक उलट है। इसमें किसी घटना, विचार या समस्या के सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों या जानकारी को सबसे पहले बताया जाता है, जबकि कहनी या उपन्यास में क्लाइमेक्स सबसे अंत में आता है। इसे उल्टा पिरामिड इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना पिरामिड के निचले हिस्से में नहीं होती है और इस शैली में पिरामिड को उल्टा कर दिया जाता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना पिरामिड के सबसे उपरी हिस्से में होती है और घटते हुये क्रम में सबसे कम महत्व की सूचनायें सबसे निचले हिस्से में होती है।स
माचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली के तहत लिखे गये समाचारों के सुविधा की दृष्टि से मुख्यतः तीन हिस्सों में विभाजित किया जाता है-मुखड़ा या इंट्रो या लीड, बॉडी और निष्कर्ष या समापन। इसमें मुखड़ा या इंट्रो समाचार के पहले और कभी-कभी पहले और दूसरे दोनों पैराग्राफ को कहा जाता है। मुखड़ा किसी भी समाचार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों और सूचनाओं को लिखा जाता है। इसके बाद समाचार की बॉडी आती है, जिसमें महत्व के अनुसार घटते हुये क्रम में सूचनाओं और ब्यौरा देने के अलावा उसकी पृष्ठभूमि का भी जिक्र किया जाता है। सबसे अंत में निष्कर्ष या समापन आता है।
समाचार लेखन में निष्कर्ष जैसी कोई चीज नहीं होती है और न ही समाचार के अंत में यह बताया जाता है कि यहां समाचार का समापन हो गया है। मुखड़ा या इंट्रो या लीड : उल्टा पिरामिड शैली में समाचार लेखन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुखड़ा लेखन या इंट्रो या लीड लेखन है। मुखड़ा समाचार का पहला पैराग्राफ होता है, जहां से कोई समाचार शुरु होता है। मुखड़े के आधार पर ही समाचार की गुणवत्ता का निर्धारण होता है।
एक आदर्श मुखड़ा में किसी समाचार की सबसे महत्वपूर्ण सूचना आ जानी चाहिये और उसे किसी भी हालत में 35 से 50 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिये। किसी मुखड़े में मुख्यतः छह सवाल का जवाब देने की कोशिश की जाती है दृ क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहां हुआ, कब हुआ, क्यों और कैसे हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि एक आदर्श मुखड़े में सभी छह ककार का जवाब देने के बजाये किसी एक मुखड़े को प्राथमिकता देनी चाहिये। उस एक ककार के साथ एक दृ दो ककार दिये जा सकते हैं। बॉडी: समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड लेखन शैली में मुखड़े में उल्लिखित तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण समाचार की बॉडी में होती है। किसी समाचार लेखन का आदर्श नियम यह है कि किसी समाचार को ऐसे लिखा जाना चाहिये, जिससे अगर वह किसी भी बिन्दु पर समाप्त हो जाये तो उसके बाद के पैराग्राफ में ऐसा कोई तथ्य नहीं रहना चाहिये, जो उस समाचार के बचे हुऐ हिस्से की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हो।
अपने किसी भी समापन बिन्दु पर समाचार को पूर्ण, पठनीय और प्रभावशाली होना चाहिये। समाचार की बॉडी में छह ककारों में से दो क्यों और कैसे का जवाब देने की कोशिश की जाती है। कोई घटना कैसे और क्यों हुई, यह जानने के लिये उसकी पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य और उसके व्यापक संदर्भों को खंगालने की कोशिश की जाती है। इसके जरिये ही किसी समाचार के वास्तविक अर्थ और असर को स्पष्ट किया जा सकता है।
निष्कर्ष या समापन : समाचार का समापन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि न सिर्फ उस समाचार के प्रमुख तथ्य आ गये हैं बल्कि समाचार के मुखड़े और समापन के बीच एक तारतम्यता भी होनी चाहिये। समाचार में तथ्यों और उसके विभिन्न पहलुओं को इस तरह से पेश करना चाहिये कि उससे पाठक को किसी निर्णय या निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिले।
समाचार संपादन
समाचार संपादन का कार्य संपादक का होता है। संपादक प्रतिदिन उपसंपादकों और संवाददाताओं के साथ बैठक कर प्रसारण और कवरेज के निर्देश देते हैं। समाचार संपादक अपने विभाग के समस्त कार्यों में एक रूपता और समन्वय स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
संपादन की प्रक्रिया-
रेडियो में संपादन का कार्य प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त होता है।
1. विभिन्न श्रोतों से आने वाली खबरों का चयन
2. चयनित खबरों का संपादन : रेडियो के किसी भी स्टेशन में खबरों के आने के कई स्रोत होते हैं। जिनमें संवाददाता, फोन, जनसंपर्क, न्यूज एजेंसी, समाचार पत्र और आकाशवाणी मुख्यालय प्रमुख हैं। इन स्रोतों से आने वाले समाचारों को राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर खबरों का चयन किया जाता है। यह कार्य विभाग में बैठे उपसंपादक का होता है। उदाहरण के लिए यदि हम आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र के लिए समाचार बुलेटिन तैयार कर रहे हैं तो हमें लोकल याप्रदेश स्तर की खबर को प्राथमिकता देनी चाहिए। तत् पश्चात् चयनित खबरों का भी संपादन किया जाना आवश्यक होता है। संपादन की इस प्रक्रिया में बुलेटिन की अवधि को ध्यान में रखना जरूरी होता है। किसी रेडियो बुलेटिन की अवधि 5, 10 या अधिकतम 15मिनिट होती है।
संपादन के महत्वपूर्ण चरण
1. समाचार आकर्षक होना चाहिए।
2. भाषा सहज और सरल हो।
3. समाचार का आकार बहुत बड़ा और उबाऊ नहीं होना चाहिए।
4. समाचार लिखते समय आम बोल-चाल की भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
5. शीर्षक विषय के अनुरूप होना चाहिए।
6. समाचार में प्रारंभ से अंत तक तारतम्यता और रोचकता होनी चाहिए।
7. कम शब्दों में समाचार का ज्यादा से ज्यादा विवरण होना चाहिए।
8. रेडियो बुलेटिन के प्रत्येक समाचार में श्रोताओं के लिए सम्पूर्ण जानकारी होना
चाहिये ।
9. संभव होने पर समाचार स्रोत का उल्लेख होना चाहिए।
10. समाचार छोटे वाक्यों में लिखा जाना चाहिए।
11. रेडियो के सभी श्रोता पढ़े लिखे नहीं होते, इस बात को ध्यान में रखकर भाषा और शब्दों का चयन किया जाना चाहिए।
12. रेडियो श्रव्य माध्यम है अतः समाचार की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि एक ही बार सुनने पर समझ आ जाए।
13. समाचार में तात्कालिकता होना अत्यावश्यक है। पुराना समाचार होने पर भी इसे अपडेट कर प्रसारित करना चाहिए।
14. समाचार लिखते समय व्याकरण और चिह्नो पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, ताकि समाचार वाचक आसानी से पढ़ सके।
समाचार संपादन के तत्व
संपादन की दृष्टि से किसी समाचार के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
1. शीर्षक- किसी भी समाचार का शीर्षक उस समाचार की आत्मा होती है। शीर्षक के माध्यम से न केवल श्रोता किसी समाचार को पढ़ने के लिए प्रेरित होता है, अपितु शीर्षकों के द्वारा वह समाचार की विषय-वस्तु को भी समझ लेता है। शीर्षक का विस्तार समाचार के महत्व को दर्शाता है। एक अच्छे शीर्षक में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं-
1. शीर्षक बोलता हुआ हो। उसके पढ़ने से समाचार की विषय-वस्तु का आभास हो जाए।
2. शीर्षक तीक्ष्ण एवं सुस्पष्ट हो। उसमें श्रोताओं को आकर्षित करने की क्षमता हो।
3. शीर्षक वर्तमान काल में लिखा गया हो। वर्तमान काल मे लिखे गए शीर्षक घटना की ताजगी के द्योतक होते हैं।
4. शीर्षक में यदि आवश्यकता हो तो सिंगल-इनवर्टेड कॉमा का प्रयोग करना चाहिए। डबल इनवर्टेड कॉमा अधिक स्थान घेरते हैं।
5. अंग्रेजी अखबारों में लिखे जाने वाले शीर्षकों के पहले ‘ए’ ‘एन’, ‘दी’ आदि भाग का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। यही नियम हिन्दी में लिखे शीर्षकों पर भी लागू होता है।
6. शीर्षक को अधिक स्पष्टता और आकर्षण प्रदान करने के लिए सम्पादक या उप-सम्पादक का सामान्य ज्ञान ही अन्तिम टूल या निर्णायक है।
7. शीर्षक में यदि किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया जाना आवश्यक हो तो उसे एक ही पंक्ति में लिखा जाए। नाम को तोड़कर दो पंक्तियों में लिखने से शीर्षक का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है।
8. शीर्षक कभी भी कर्मवाच्य में नहीं लिखा जाना चाहिए।
2. आमुख- आमुख लिखते समय ‘पाँच डब्ल्यू’ तथा एक-एच के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अर्थात् आमुख में समाचार से संबंधित छह प्रश्न-Who, When, Where, What और How का अंतर पाठक को मिल जाना चाहिए। किन्तु वर्तमान में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है। आज छोटे-से-छोटे आमुख लिखने की प्रवृत्ति तेजी पकड़ रही है। फलस्वरूप इतने प्रश्नों का उत्तर एक छोटे आमुख में दे सकना सम्भव नहीं है। एक आदर्श आमुख में 20 से 25 शब्द होना चाहिए।
3. समाचार का ढाँचा- समाचार के ढाँचे में महत्वपूर्ण तथ्यों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। सामान्यतः कम से कम 150 शब्दों तथा अधिकतम 400 शब्दों में लिखा जाना चाहिए। श्रोताओं को अधिक लम्बे समाचार आकर्षित नहीं करते हैं।
समाचार सम्पादन में समाचारों की निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-
1. समाचार किसी कानून का उल्लंघन तो नहीं करता है।
2. समाचार नीति के अनुरूप हो।
3. समाचार तथ्याधारित हो।
4. समाचार को स्थान तथा उसके महत्व के अनुरूप विस्तार देना।
5. समाचार की भाषा पुष्ट एवं प्रभावी है या नहीं। यदि भाषा नहीं है तो उसे पुष्ट बनाएँ।
6. समाचार में आवश्यक सुधार करें अथवा उसको पुर्नलेखन के लिए वापस कर दें।
7. समाचार का स्वरूप सनसनीखेज न हो।
8. अनावश्यक अथवा अस्पस्ट शब्दों को समाचार से हटा दें।
9. ऐसे समाचारों को ड्राप कर दिया जाए, जिनमें न्यूज वैल्यू कम हो और उनका उद्देश्य किसी का प्रचार मात्र हो।
10. समाचार की भाषा सरल और सुबोध हो।
11. समाचार की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न हो।
12. वाक्यों में आवश्यकतानुसार विराम, अद्र्धविराम आदि संकेतों का समुचित प्रयोग हो।
13. समाचार की भाषा मेंे एकरूपता होना चाहिए।
14. समाचार के महत्व के अनुसार बुलेटिन में उसको स्थान प्रदान करना।
समाचार-सम्पादक की आवश्यकताएँ
एक अच्छे सम्पादक अथवा उप-सम्पादक के लिए आवश्यक होता है कि वह समाचार जगत्में अपने ज्ञान-वृद्धि के लिए निम्नांकित पुस्तकों को अपने संग्रहालय में अवश्य रखें-
1. सामान्य ज्ञान की पुस्तकें।
2. एटलस।
3. शब्दकोश।
4. भारतीय संविधान।
5. प्रेस विधियाँ।
6. इनसाइक्लोपीडिया।
7. मन्त्रियों की सूची।
8. सांसदों एवं विधायकों की सूची।
9. प्रशासन व पुलिस अधिकारियों की सूची।
10. ज्वलन्त समस्याओं सम्बन्धी अभिलेख।
11. भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) पुस्तक।
12. दिवंगत नेताओं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिलेख।
13. महत्वपूर्ण व्यक्तियों व अधिकारियों के नाम, पते व फोन नम्बर।
14. पत्रकारिता सम्बन्धी नई तकनीकी पुस्तकें।
15. उच्चारित शब्द
समाचार के स्रोत
कभी भी कोई समाचार निश्चित समय या स्थान पर नहीं मिलते। समाचार संकलन के लिए संवाददाताओं को फील्ड में घूमना होता है। क्योंकि कहीं भी कोई ऐसी घटना घट सकती है, जो एक महत्वपूर्ण समाचार बन सकती है। समाचार प्राप्ति के कुछ महत्वपूर्ण स्रोत निम्न हैं-
1. संवाददाता- टेलीविजन और समाचार-पत्रों में संवाददाताओं की नियुक्ति ही इसलिए होती हैकि वह दिन भर की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकलन करें और उन्हें समाचार का स्वरूप दें।
2. समाचार समितियाँ- देश-विदेश में अनेक ऐसी समितियाँ हैं जो विस्तृत क्षेत्रों के समाचारों को संकलित करके अपने सदस्य अखबारों और टीवी को प्रकाशन और प्रसारण के लिए प्रस्तुत करती हैं। मुख्य समितियों में पी.टी.आई. (भारत), यू.एन.आई. (भारत), ए.पी. (अमेरिका), ए.एफ.पी. (फ्रान्स), रॉयटर (ब्रिटेन)।
3. प्रेस विज्ञप्तियाँ- सरकारी विभाग, सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत प्रतिष्ठान तथा अन्य व्यक्ति या संगठन अपने से सम्बन्धित समाचार को सरल और स्पष्ट भाषा में लिखकर ब्यूरो आफिस में प्रसारण के लिए भिजवाते हैं। सरकारी विज्ञप्तियाँ चार प्रकार की होती हैं।
(अ) प्रेस कम्युनिक्स- शासन के महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस कम्युनिक्स के माध्यम से समाचार-पत्रों को पहुँचाए जाते हैं। इनके सम्पादन की आवश्यकता नहीं होती है। इस रिलीज के बाएँ ओर सबसे नीचे कोने पर सम्बन्धित विभाग का नाम, स्थान और निर्गत करने की तिथि अंकित होती है। जबकि टीवी के लिए रिर्पोटर स्वयं जाता है
(ब) प्रेस रिलीज-शासन के अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस रिलीज के द्वारा समाचार-पत्र और टी.वी. चैनल के कार्यालयों को प्रकाशनार्थ भेजे जाते हैं।
(स) हैण्ड आउट- दिन-प्रतिदिन के विविध विषयों, मन्त्रालय के क्रिया-कलापों की सूचना हैण्ड-आउट के माध्यम से दी जाती है। यह प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो द्वारा प्रसारित किए जाते हैं।
(द) गैर-विभागीय हैण्ड आउट- मौखिक रूप से दी गई सूचनाओं को गैर-विभागीय हैण्ड आउट के माध्यम से प्रसारित किया जाता है।
4. पुलिस विभाग- सूचना का सबसे बड़ा केन्द्र पुलिस विभाग का होता है। पूरे जिले में होनेवाली सभी घटनाओं की जानकारी पुलिस विभाग की होती है, जिसे पुलिसकर्मी-प्रेस के प्रभारी संवाददाताओं को बताते हैं।
5. सरकारी विभाग- पुलिस विभाग के अतिरिक्त अन्य सरकारी विभाग समाचारों के केन्द्र होते हैं। संवाददाता स्वयं जाकर खबरों का संकलन करते हैं अथवा यह विभाग अपनीउपलब्धियों को समय-समय पर प्रकाशन हेतु समाचार-पत्र और टीवी कार्यालयों को भेजते रहते हैं।
6. चिकित्सालय- शहर के स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए सरकारी चिकित्सालयों अथवा बड़े प्राइवेट अस्पतालों से महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
7. कॉरपोरेट आफिस- निजी क्षेत्र की कम्पनियों के आफिस अपनी कम्पनी से सम्बन्धित समाचारों को देने में दिलचस्पी रखते हैं। टेलीविजन में कई चैनल व्यापार पर आधारित हैं।
8. न्यायालय- जिला अदालतों के फैसले व उनके द्वारा व्यक्ति या संस्थाओं को दिए गए निर्देश समाचार के प्रमुख स्रोत हैं।
9. साक्षात्कार- विभागाध्यक्षों अथवा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार समाचार के महत्वपूर्ण अंग होते हैं।
10. समाचारों का फॉलो-अप या अनुवर्तन- महत्वपूर्ण घटनाओं की विस्तृत रिपोर्ट रुचिकर समाचार बनते हैं। दर्शक चाहते हैं कि बड़ी घटनाओं के सम्बन्ध में उन्हें सविस्तार जानकारी मिलती रहे। इसके लिए संवाददाताओं को घटनाओं की तह तक जाना पड़ता है।
11. पत्रकार वार्ता- सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थान अक्सर अपनी उपलब्धियों को प्रकाशित करने के लिए पत्रकारवार्ता का आयोजन करते हैं। उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य समृद्ध समाचारों को जन्म देते हैं।
उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त सभा, सम्मेलन, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम,विधानसभा, संसद, मिल, कारखाने और वे सभी स्थल जहाँ सामाजिक जीवन की घटना मिलती है, समाचार के महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं।

संदर्भ 
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