गुरुवार, 25 अगस्त 2011

जेपी और अन्ना आन्दोलन में फर्क

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ईमानदार थे, और अन्ना हजारे की छवि भी ईमानदार है। परन्तु, दोनों आंदोलनों में बड़ा फर्क है। जेपी का आंदोलन संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए था, जबकि अन्ना का एक सूत्री मुद्दा भ्रष्टाचार है। वैसे, भ्रष्टाचार का विरोध भी जेपी आंदोलन का एक हिस्सा था। भ्रष्टाचार के सभी पहलुओं-सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि, पर उस आंदोलन में जोर रहा। जेपी का जीवन राजनीतिक, सामाजिक एवं 42 के आंदोलन के अनुभवों से जुड़ा रहा। उनका कैनवास बहुत बड़ा था। प्रधानमंत्री के कद के सामने उनका व्यक्तित्व किसी तरह कम नहीं था। जेपी संसदीय व्यवस्था में बहुत जोर देते थे। पूरे आंदोलन के दौरान उन्होंने संसदीय व्यवस्था को और मजबूती प्रदान करने का ही काम किया। बड़ी बात तो यह है उनका आंदोलन किसी ब्लू-प्रिंट पर आधारित नहीं था। जेपी आंदोलन खुद परिस्थिति के मुताबिक अपनी धारा तय करता रहा। जेपी के साथ भीड़ नहीं थी। उनके साथ प्रतिबद्ध लोग थे।

उनके अनुसार बड़ी संख्या से किसी आंदोलन में क्षणिक लाभ लाभ हो सकता है, परन्तु जज्बात को समाप्त होने में देर भी नहीं लगती। भीड़ दिशा नहीं तय कर सकती। प्रतिबद्ध कार्यकर्ता ही इस काम में सहयोग दे सकते हैं। वैसे, यह बड़ी बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना बड़ा आंदोलन हो रहा है। भ्रष्टाचार से पूरा देश त्रस्त है, और इसे मिटाये बिना देश तरक्की भी नहीं कर सकता।

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

बांटो और राज करो !!!!!!!!!!!!!!

कांग्रेस शायद सोच रही है कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को विभाजित कर और लोकपाल बिल के अपने प्रारूप को सदन में पेश कर उसने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल की हवा निकाल दी है। लेकिन उसकी यह खतरनाक चाल दीर्घावधि में उसी को नुकसान पहुंचाएगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की विश्वसनीयता खंडित करने के लिए उसने कई चालें चलीं। सिविल सोसाइटी की वैधता को उसने इस आधार पर चुनौती दी कि नागरिक समाज के ये स्वयंभू प्रतिनिधि चुने हुए जनप्रतिनिधियों को कमजोर कर रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के प्रमुख नेताओं प्रशांत भूषण, शांति भूषण और अरविंद केजरीवाल के व्यक्तिगत साख को उसने जहां चुनौती दी, वहीं बाबा रामदेव को अर्द्धसत्य और अतिशयोक्तिपूर्ण बयान के आधार पर कमजोर करने की कोशिश की। इसका संदेश यह निकलता है कि अगर सभी चोर हैं, तो जांचे-परखे हुए कांग्रेसी चोरों का ही साथ देना चाहिए।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस के खिलाफ भाजपा और संघ द्वारा प्रेरित सांप्रदायिक साजिश के रूप में पेश कर और राष्ट्र विरोधी बताकर चुनौती दी गई। दिग्विजय सिंह, जयंती नटराजन और मनीष तिवारी जैसे कांग्रेस के निष्ठावान समर्थक समवेत स्वर में आरोप लगा रहे थे कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे संघ और भाजपा के राजनीतिक औजार हैं। शबनम हाशमी जैसी वाम समर्थक कांग्रेसी ने तो एक कदम आगे बढ़कर रामलीला मैदान में हुई कार्रवाई को उचित ठहराते हुए कहा कि पुलिस को पक्की सूचना थी कि संघ और विहिप का इरादा पंडाल में आग लगाकर वहां उपस्थित भीड़ को जिंदा जलाना था, ताकि गोधरा जैसी हिंसा पूरे देश में फैल जाए!

यह पहला अवसर नहीं है, जब किसी सत्तारूढ़ दल ने अपने कुशासन के खिलाफ बढ़ते विरोध को दबाने के लिए ऐसा आतंक फैलाया है। रामलीला मैदान में पुलिसिया दमन को कोई दिशाहीन और भयभीत सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ प्रतिक्रिया मान सकता है, लेकिन मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की सिलसिलेवार कोशिश करते हुए हिंदू-मुसलिम रिश्ते को जिस तरह दूषित किया गया, वह सचमुच भयावह है। सवाल यह है कि बल प्रयोग करने के बजाय पुलिस ने बाबा रामदेव और उनके अनुयायियों को चेतावनी क्यों नहीं दी। क्या जिम्मेदार सरकारें खतरों का सामना कर रहे लोगों को पीटती हैं? सरकार ने शायद यह भ्रामक धारणा बना ली थी कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संघ या भाजपा की करतूत बताते ही धर्मनिरपेक्ष और सभ्य लोग इस आंदोलन की निंदा करेंगे और अन्ना व रामदेव को समर्थन देना बंद कर देंगे।

उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने लोकपाल बिल पर समर्थन जुटाने के लिए सांप्रदायिक अपील नहीं की। जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर विभिन्न धर्मों, जातियों के लोग मौजूद थे। यहां तक कि रामलीला मैदान पर हुई कार्रवाई के बाद कायरों की तरह भागने के बावजूद बाबा रामदेव ने उस कार्रवाई को हिंदुओं और संत समाज पर हमला नहीं बताया। इसके विपरीत धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली कांग्रेस लगातार इस मुहिम में सांप्रदायिक जहर घोलती रही। उसका व्यवहार पिछली शताब्दी के अस्सी के दशक में पंजाब के किसानों के आंदोलन को दबाने के इंदिरा गांधी के आचरण से ज्यादा अलग नहीं है। तब उन्होंने किसानों के आंदोलन को कुचलने के लिए भिंडरांवाले को खड़ा कर अकाली दल के उदारवादी नेतृत्व को खत्म किया था। पूरे राष्ट्र ने किसानों के धर्मनिरपेक्ष आंदोलन को कांग्रेस द्वारा सांप्रदायिक, आतंकवादी आंदोलन में बदलने का भारी मूल्य चुकाया है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सांप्रदायिक जहर घोलकर कांग्रेस फिर वैसा ही कर रही है, जिसका उद्देश्य मुसलिम मतदाताओं और वामपंथियों को अपने पाले में करना है।

टीम अन्ना को संघ से प्रेरित बताने के लिए दिग्विजय सिंह ने यह बेतुका तर्क दिया था कि जिस मंच पर अन्ना हजारे अनशन कर रहे थे, उसकी पृष्ठभूमि में भारत माता की तसवीर लगी थी और वहां भारत माता की जय और वंदे मातरम् के नारे बार-बार लगाए गए। भारत माता स्वतंत्रता आंदोलन की आराध्य मानी जाती हैं। गांधी और नेहरू समेत लगभग सभी कांग्रेसी नेताओं ने भारत माता के चित्र का उपयोग यह संदेश देने के लिए किया कि भारत माता बिना किसी भेदभाव के समान रूप से अपने सभी बच्चों को प्यार करती हैं, चाहे वह हिंदू, मुसलिम सिख, ईसाई हो या ऊंची या नीची जाति। इसलिए भारत माता समग्र राष्ट्रवाद, समानता और भाइचारे का प्रतीक बन गईं। इसी तरह वंदे मातरम् जय हिंद की तरह स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रचलित नारा था।

दरअसल कई सांप्रदायिक दंगों में अपनी भूमिका छिपाने की हताश कोशिश में कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन के कई सकारात्मक सांस्कृतिक प्रतीक भाजपा को सौंप दिया है। भगवा रंग महान कारणों से बलिदान और शहादत से जुड़ा है। यह हिंदू और सिख धर्म की आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है। भगत सिंह ने ‘बसंती चोला’ रंगने का गीत गाया था। लेकिन अब कांग्रेस ने इसे भाजपा की सांप्रदायिक आलोचना का पर्याय बना दिया है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को तोड़ने और कमजोर करने तथा बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के बीच शरारतपूर्ण ढंग से फूट डालने के लिए भले ही कोई कांग्रेस को माफ कर दे, लेकिन भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक जहर घोलने के लिए इतिहास उसे कभी माफ नहीं करेगा।