बुधवार, 29 सितंबर 2010

मुस्लिम -हिन्दू और भारत !!!!!!!!!!!

आज हमारे चारों ओर का माहौल कुछ ऐसा सुलगता हुआ सा प्रतीत होता है, जैसे हम फ़ूटे ज्वालामुखी के पिघले लावे के बीच से रास्ता बनाते हुए कहीं जा पा रहे हों । वृहत्तर भारत के कई खंड में विभाजित हो जाने और अलग-अलग टुकड़ों पर अपनी रोटियां अलग पकाकर खाने के बावज़ूद हमारे कलेज़े की आग कहीं से भी ठंडी होती प्रतीत नहीं होती । विश्व राजनीति, अर्थनीति और भौतिकवाद ने मानव समाज की सोच को इतने संकुचित दायरे में क़ैद कर दिया है, कि मनुष्य का अपना प्राकृतिक स्वभाव होता क्या है, इसको जानने के लिये भी वन्य पशुओं के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ रहा है । बढ़ती जनसंख्या भी इसका कारण रही जिसने क्रमश: घर, समाज, प्रान्त और देशों तक में दीवारें खड़ी करने का एक कभी खत्म न होने वाला सिलसिला बना दिया । फ़िर भी हमारा भारत ही इससे अधिक आक्रांत रहा है, क्योंकि इतनी विशालता के बावज़ूद इसका एकीकृत ढांचा विदेशी ताक़तों के लिये परेशानी और ईर्ष्या का सबब रहा । पिछले चार-पांच सौ वर्षों में लगातार विदेशी आक्रमण झेलते इस भूभाग पर परिस्थितियों ने एक धर्म से कई धर्म, पंथ और मज़हबों में इसको विभक्त कर दिया, जिसका दंश झेलना हमारी बाध्यता बन चुकी है । कहीं कुछ तो है ही, जिसने इस भूभाग से लम्बे समय के बाद ही सही, घुसपैठियों की जड़ें जम चुकने के बावज़ूद उन्हें कालान्तर में हमारी ज़मीन छोड़ने पर मज़बूर किया । शायद इसी तासीर पर किसी शायर को कहना पड़ा कि, ‘कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा’।
अब बात करें हिन्दू-मुसलमान की । क्योंकि कब-कब क्या-क्या हुआ, कब अफ़गानिस्तान वाला भूभाग अलग हो गया, फ़िर कब बर्मा (आज का म्यांमार) हमारा नहीं रहा, और फ़िर उसी प्रकार पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान और गुलाम कश्मीर से हम कब हाथ धो बैठे, यह सबकुछ कुछ पुराने, और कुछ नए इतिहास का विषय है, जिसपर चर्चा करना इस लेख का विषय नहीं है । किसी ब्लाँग में इतिहास-भूगोल की चर्चा हमेशा उबाऊ ही होती है । हमें बात करनी है समाज में निरंतर बढ़ती जा रही उस अ-सहिष्णुता की भावनाओं की, जो हमें निरंतर किसी विदेशी दार्शनिक की उस भविष्यवाणी को चरितार्थ होने की ओर ठेलती हुई सी प्रतीत हो रही हैं, जिसमें उसने एक-दो दशक में ही भारत के कम से कम बीस टुकड़े होने की कल्पना की थी । आज पूर्वोत्तर से लेकर कश्मीर तक अलगाववाद की भावना जिस तेज़ी के साथ जोर पकड़ती जा रही है, उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं, कि देर-सवेर कहीं हमें इन तत्वों के आगे घुटने तो नहीं टेक देने पड़ेंगे? उसपर कोढ़ में खाज की तरह इस्लामिक और भगवा आतंकवाद का नारा एक अलग प्रकार के सिरदर्द का कारण बनता जा रहा है । हिन्दू-मुस्लिम दोनों पक्ष के वे ढेर सारे लोग, जिसमें बुद्धिजीवी और आमजन दोनों प्रकार के लोग और ज़मातें हैं, जो कभी अ-सहिष्णुता और कट्टरवाद को कुछ सिरफ़िरे लोगों की सोच होने की दलीलें दिया करते थे, उनके विगत कुछ वर्षों में बदलते तेवर देखकर हैरानी होती है । कट्टरवाद अब कुछ गिनती के हिन्दू-मुस्लिम संगठनों की सीमा से बाहर होकर सड़कों पर आता जा रहा है । समाज पहले भी धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर दो खेमों में बंटा हुआ था, परन्तु एक अव्यक्त सी मर्यादा दोनों को कहीं न कहीं जोड़ती थी । उस मर्यादा की दीवारें तेज़ी से ढहती जा रही हैं, यह चिन्ता का विषय है । जहां जिसकी आबादी अधिक है, वहां स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अल्प-संख्यक पर भारी पड़ती है, यह एक स्वाभाविक मनोविज्ञान है । हर ऐसी जगह पर अल्पसंख्यक आबादी को कुछ समझौते अपनी स्वच्छन्दता के साथ करते हुए बहुसंख्यक समाज के साथ एडजस्ट करना पड़ता है, ऐसा शुरू से ही होता आया है । वोट की राजनीति अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से समाज को आपस में लड़ाते आई है ।
परन्तु आज की असहिष्णुता के तेवर घातक इसलिये हैं, क्योंकि इसका अंजाम घातक है । शायद बहुसंख्यक समाज इस खतरे से कहीं न कहीं जानबूझकर आंख चुराता हुआ सा प्रतीत हो रहा है । कश्मीर के मुसलमान शुरू से ही भारत के अन्य मुसलमानों से अलग श्रेणी के रहे, क्योंकि इस श्रेणी को हमने ही गढ़ा, और उसे परवान चढ़ाया । आर्थिक पैकेज दे-देकर हमने वहां के मुसलमानों को काहिल, मुफ़्तखोर, मुंहज़ोर और बिगड़ैल बना दिया, जैसे किसी रईसज़ादे के बच्चे होते हैं । ऐसे विधान बनाकर दे दिये कि इधर का कोई वहां जाकर न तो बस सकता है, न ही कोई धंधा रोज़गार जमा सकता है । लिहाज़ा वहां के मुसलमान पूरी तरह अपनी मर्ज़ी के मालिक और पाकिस्तान से रोटी-बेटी का रिश्ता होने के कारण उसके क़रीबी बनते चले गए । इसके विपरीत इधर के मुसलमानों के लिये हमने कुछ भी खास नहीं किया ताक़ि वह भी मुख्यधारा के साथ मिलकर अपने को विकसित कर सकें । कुछ गिने-चुने लोगों का विकास हुआ, और आज वही लोग उस समाज के अगुआ बने हुए हैं । सवाल यह है कि मुसलमान के नाम पर यदि हम उन्हें भी कश्मीरी मुसलमान और बाहरी इस्लामिक कट्टरवादियों आतंकवादियों की श्रेणी में रखकर देखते हैं, तो फ़िर वहीं यह सवाल भी पैदा होता है कि आखिर हम चाहते क्या हैं? मुसलमान क़ौम से छुटकारा? कैसे? उनसे आर-पार की लड़ाई लड़ के? फ़िर क्या होगा? आज जो मुस्लिम आबादी भारत में है, सबको पता है कि पाकिस्तान की पूरी आबादी से भी अधिक है । तब फ़िर अपनी ज़मीन के और टुकड़े करने के लिये भी हमें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिये । क्योंकि हिन्दू मुस्लिम से अलग हो जायं, या मुस्लिम हिन्दू से, बात बिल्कुल बराबर है , कोई फ़र्क़ नहीं । यदि मारकर किसी सम्प्रदाय को समाप्त किया जा सकता, तो पहला मौक़ा आक्रमणकारी मुग़लों के हाथ आया था । क्यों नहीं वे हिन्दुओं का खात्मा कर पूरे भारत को मुस्लिम आबादी में तब्दील कर पाए? मार-काट मचाकर भी जब समाप्त नहीं कर पाए, तो धर्मांतरण का सहारा लेना पड़ा, फ़िर भी शत-प्रतिशत हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बना पाए । आज वही आबादी हिन्दू-मुस्लिम दो खेमों में विभक्त है । जब मुसलमान हिन्दुओं को समाप्त नहीं कर पाए, तो हिन्दू भी कभी मुसलमानों को समाप्त नहीं कर सकते । एक ही विकल्प निकलेगा इस लड़ाई का, कि ज़मीन के टुकड़े कीजिये, तथा एक और देश की सीमा तय कर लीजिये । इस विकल्प से भी बात बनती कहां है? पाकिस्तान बनने के बाद भी तमाम मुसलमानों ने अपनी धरती, जहां उनके पुरखे पैदा हुए थे, वहीं मर जाना पसन्द किया, उधर गए नहीं । उधर के कुछ हिन्दुओं ने भी ऐसा ही किया था, जो आज वहां अल्पसंख्यक हैं ।
ले-देकर बात वहीं अटकती है कि इस झगड़े को बढ़ावा देकर, दोनों में से किसी भी कौम द्वारा अपने लोगों में कट्टरवादिता को प्रश्रय देकर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला । कुछ लोगों की दुकानदारी ज़रूर चमकती है इन भावनाओं को भड़काकर, जैसे नेता और कुछ तथाकथित हिन्दूवादी खबरची और प्रतिक्रियावादी । जिनको विधानसभाओं और लोकसभा या फ़िर अपनी स्थानीय निकाय की सीट पक्की करनी होती है, या फ़िर तीखे तेवरों वाली पत्रकारिता में अपनी विशेष पहचान स्थापित करनी होती है, या फ़िर थोडी दूरी पर अपने गुट का धार्मिक या राजनीतिक नेता बनने की सम्भावना दिखती है । मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि हिन्दू हों या मुसलमान, इस विचारधारा के लोग ही समाज के असली दुश्मन और अलगाववाद को प्रश्रय देने वाले लोग होते हैं । हम दूसरे किसी भी देश से अपनी तुलना करने की स्थिति में कभी नहीं हो पाएंगे, क्योंकि किसी भी देश की आबादी जाति-धर्म और पंथ की इतनी विभिन्नताओं के साथ आबाद नहीं है । हमारे लिये एक और एकमात्र रास्ता है कि आज विज्ञान और टेक्नाँलाँजी के ज़माने में विकास के सारे सुख प्राप्त करने हेतु, सभी जाति पंथ और मजहब एक होकर आतंकवाद, अलगाववाद और वह कोई भी ताक़त जो हमारे विकास का रोड़ा बनती हो, उसको एकजुट होकर पूरी ताक़त से कुचल दें । इसके लिये हमें सम्प्रदायवाद की संकीर्णता से ऊपर उठना ही होगा, क्योंकि और कोई चारा नहीं है । हिन्दू हो या मुस्लिम, कोई इस देश के टुकड़े होता देखना कभी पसन्द नहीं करेगा, सिवाय विदेशी खर्चों पर पल रहे भाड़े के टट्टुओं के । इनकी तो न कोई जाति है, न मजहब, न ही आमजन के जीने मरने से कोई वास्ता । इनके दमन के लिये हम सब का कर्त्तव्य बनता है कि अपने जवानों, चाहे किसी भी फ़ोर्स से सम्बन्धित हों, उनको नैतिक समर्थन देने के लिये हमेशा आगे रहें । नेताओं की बातों को तौलें । यदि वे देश और समाज के हित में काम करते हैं, तो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उन्हें समर्थन दें । यदि उनकी किसी गतिविधि में उनका दलगत या व्यक्तिगत स्वार्थ दिखता हो, तो उन्हें कभी बढ़ावा न दें । हम सुधरेंगे, तो समाज और देश दोनों स्वत: सुधर जाएंगे ।

3 टिप्‍पणियां:

Do baatein.... ने कहा…

badiya lilha hai, likhte rahe........subhkamnayr aapke saath hai.

Do baatein.... ने कहा…

good carry on badhu.........

Do baatein.... ने कहा…

good carry on bro......