सोमवार, 27 दिसंबर 2010

राजनीति का अंतरराष्ट्रीय लीकेज

एक चीज है विकीलीक्स। आजकल बड़ा जोर से लीक हो रहेला है। बोलने को तो विकीलीक्स एक इंटरनेट साइट है, पर वास्तव में वो दुनिया का राजनीति का घड़ा है जो चारों बाजू से लीक हो रहेला है।
दुनिया में दो किसिम का देश माना जाता है - एक विकसित और दूसरा विकासशील। विकासशील देश का लोग यह माना करता था कि विकसित देश का कंस्ट्रक्शन मजबूत होता है। उसका सीमेंट में कोई मिलावट नहीं होता। उसका दूध में पानी नहीं होता, गरम मसाला में घोड़ा का लीद नहीं होता। लेकिन, इधर विकीलीक्स ने लीक करना चालू किया तो उधर पता चला कि विकसित देश का छलनी में पन बहोत छेद है। वो पन कम लीक नहीं होता है। आजकल तो विकसित देश का सिरफ छत ईच नहीं, तहखाना पन लीक हो रहेला है।
बड़ा लोग बुद्धि चतुर होता है। आम लोग, बड़ा लोग का बुद्धि चातुर्य से इतना प्रभावित हो जाता कि वो बड़ा लोग का बायोलॉजी भूल जाता है। भूल जाता है कि बड़ा लोग पन छोटा लोग का माफिक खाता है। पीता है। और टॉयलेट पन जाता है। बड़ा लोग जो कुछ करता है, बड़ा लेवल पर करता है। विकीलीक्स ने बताया है कि बड़ा लोग का टॉयलेट कितना बड़ा लेवल पर लीक होता है।
दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो गलती नहीं करता। विकीलीक्स ने पन किया। उसने लीक करके बताया कि हिंदुस्तान में न तो अपना शत्रु से निपटने का शक्ति है, न इच्छाशक्ति। ये बात लीक करने का क्या जरूरत था? ये बात तो हिंदुस्तान का लोग को तबसे पता है, जब ये देश का ऊपर पहला हमला हुआ था। मुट्ठी भर लोग आया और ये मुलुक का ऊपर छा गया। एक हमला सफल हुआ तो फिर तो लाइन लग गया। ये सब इतिहास में साफ-साफ लिखेला है। इसको बता कर विकीलीक्स ने बस अपना टाइम ईच खराब किया है। वैसे इतिहास में जो लोग हिंदुस्तान पर हावी हुआ, वो लोग का असलियत अब विकीलीक्स लीक कर रहा है। ये लीक बताता है कि हारने वाला और जीतने वाला, दोनों का बुनियादी राजनीति में कोई फरक नहीं होता। सब एक जैसा ईच लीक करता है।
राजनीति में न कोई परमानेंट दोस्त होता है, न कोई परमानेंट दुश्मन। सब परमानेंट धोखा देने वाला होता है। इस कारण जो राजनीति में होता है उसका मन में हमेशा यह तनाव बना रहता है कि पता नहीं कौन कब मेरे को धोखा दे देंगा। दूसरा देवे उसके पहले मैं ईच उसको धोखा दे देवे तो अच्छा रहेंगा। पहले धोखा देना - इसी को राजनीति बोलता है। आपने देखा होएंगा कि राजनेता लोग का चेहरा कितना सपाट होता है। उसका कारण ये है कि वो नहीं चाहता कि कोई ये समझ जावे कि अब वो किसको क्या धोखा देने वाला है। किसी राजनेता का चेहरा देख कर आप कभी ये पता नहीं लगा सकता कि उसका मन में क्या चल रहा है। उसका चेहरा पर जो भाव होता है, जरूरी नहीं कि मन में वो ईच विचार होवे। अकसर जब नेता का चेहरा पर करुणा दिख रहा होता है, वो मन में कमीशन काट रहा होता है। नेता लोग से बड़ा दलाल दुनिया में कोई नहीं होता। जो नीति बेच कर खा जाए, उससे बड़ा दलाल कोई हो पन कैसे सकता है!
विकीलीक्स ने दिखा दिया है कि नेता का रंग चाहे कैसा पन होवे - गोरा , काला या भूरा , राजनीति का रंग हमेशा काला ईच होता है। विकीलीक्स ने बता दिया है कि जब दो नेता गला मिलता है , तो वास्तव में वो किसी तीसरा का गला काटने की योजना बना रहा होता है। लेकिन , गला मिलने वाला को भी एक - दूसरा पर भरोसा नहीं होता। गला मिलते - मिलते वो एक दूसरा का गला काटने का योजना पन बनाता रहता है। विकीलीक्स राजनीति से नीति का लीक होने का कहानी है। ईमानदारी लीक होने का कहानी है। विश्वसनीयता लीक होने का कहानी है। राजनीति अब इतना खतरनाक हो गया है कि अब उस पर भरोसा करने का सोचने में पन डर लगता है। ये ईच विकीलीक्स का सा र है।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

राजनीति मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त...


मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त होते हैं, जिनके द्वारा जब किसी प्रोडक्ट की लॉंचिंग की जाती है तब उन्हें आजमाया जाता है। ऐसा ही एक प्रोडक्ट भारत की आम जनता के माथे पर थोपने की लगभग सफ़ल कोशिश हुई है। मार्केटिंग के बड़े-बड़े गुरुओं और दिग्विजय सिंह जैसे घाघ और चतुर नेताओं की देखरेख में इस प्रोडक्ट यानी राहुल गाँधी की मार्केटिंग की गई है, और की जा रही है। जब मार्केट में प्रोडक्ट उतारा जा रहा हो, (तथा उसकी गुणवत्ता पर खुद बनाने वाले को ही शक हो) तब मार्केटिंग और भी आक्रामक तरीके से की जाती है, बड़ी लागत में पैसा, श्रम और मानव संसाधन लगाया जाता है, ताकि घटिया से घटिया प्रोडक्ट भी, कम से कम लॉंचिंग के साथ कुछ समय के लिये मार्केट में जम जाये। (मार्केटिंग की इस रणनीति का एक उदाहरण हम “माय नेम इज़ खान” फ़िल्म के पहले भी देख चुके हैं, जिसके द्वारा एक घटिया फ़िल्म को शुरुआती तीन दिनों की ओपनिंग अच्छी मिली)। सरल भाषा में इसे कहें तो “बाज़ार में माहौल बनाना”, उस प्रोडक्ट के प्रति इतनी उत्सुकता पैदा कर देना कि ग्राहक के मन में उस प्रोडक्ट के प्रति लालच का भाव पैदा हो जाये। ग्राहक के चारों ओर ऐसा वातावरण तैयार करना कि उसे लगने लगे कि यदि मैंने यह प्रोडक्ट नहीं खरीदा तो मेरा जीवन बेकार है। हिन्दुस्तान लीवर हो या पेप्सी-कोक सभी बड़ी कम्पनियाँ इसी मार्केटिंग के फ़ण्डे को अपने प्रोडक्ट लॉंच करते समय अपनाती हैं। ग्राहक सदा से मूर्ख बनता रहा है और बनता रहेगा, ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी के मामले में भी होने वाला है।

राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं… हमारे मानसिक कंगाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का कहना है कि राहुल बाबा जब भी प्रधानमंत्री बनेंगे (या अपने माता जी की तरह न भी बनें तब भी) देश में रामराज्य आ जायेगा, अब रामराज्य का तो पता नहीं, रोम-राज्य अवश्य आ चुका है (उदाहरण – उड़ीसा के कन्धमाल में यूरोपीय यूनियन के चर्च प्रतिनिधियों का दौरा)।

जब से मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं और राहुल बाबा ने अपनी माँ के श्रीचरणों का अनुसरण करते हुए मंत्री पद का त्याग किया है तभी से कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और “धृतराष्ट्र और दुर्योधन के मिलेजुले रूप” टाइप के मीडिया ने मिलकर राहुल बाबा की ऐसी छवि निर्माण करने का “नकली अभियान” चलाया है जिसमें जनता स्वतः बहती चली जा रही है। दुर्भाग्य यह है कि जैसे-जैसे राहुल की कथित लोकप्रियता बढ़ रही है, महंगाई भी उससे दोगुनी रफ़्तार से ऊपर की ओर जा रही है, गरीबी भी बढ़ रही है, बेरोज़गारी, कुपोषण, स्विस बैंकों में पैसा, काला धन, किसानों की आत्महत्या… सब कुछ बढ़ रहा है, ऐसे महान हैं हमारे राहुल बाबा उर्फ़ “युवराज” जो आज नहीं तो कल हमारी छाती पर बोझ बनकर ही रहेंगे, चाहे कुछ भी कर लो।

मजे की बात ये है कि राहुल बाबा सिर्फ़ युवाओं से मिलते हैं, और वह भी किसी विश्वविद्यालय के कैम्पस में, जहाँ लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी – राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है NSUI से जुड़ना। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो… ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा… “राजकुमार” फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं… और मीडिया उन्हें ऐसे “फ़ॉलो” कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं। यदि राहुल को विश्वविद्यालय से इतना ही प्रेम है तो वे तेलंगाना के उस्मानिया विश्वविद्यालय क्यो नहीं जाते? जहाँ रोज-ब-रोज़ छात्र पुलिस द्वारा पीटे जा रहे हैं या फ़िर वे JNU कैम्पस से चलाये जा रहे वामपंथी कुचक्रों का जवाब देने उधर क्यों नहीं जाते? लेकिन राहुल बाबा जायेंगे आजमगढ़ के विश्वविद्यालय में, जहाँ उनके ज्ञान की पोल भी नहीं खुलेगी और वोटों की खेती भी लहलहायेगी। अपने पहले 5 साल के सांसद कार्यकाल में लोकसभा में सिर्फ़ एक बार मुँह खोलने वाले राजकुमार, देश की समस्याओं को कैसे और कितना समझेंगे?

कहा जाता है कि राहुल बाबा युवाओं से संवाद स्थापित कर रहे हैं? अच्छा? संवाद स्थापित करके अब तक उन्होंने युवाओं की कितनी समस्याओं को सुलझाया है? या प्रधानमंत्री बनने के बाद ही कौन सा गज़ब ढाने वाले हैं? जब उनके पिताजी कहते थे कि दिल्ली से चला हुआ एक रुपया गरीबों तक आते-आते पन्द्रह पैसा रह जाता है, तो गरीब सोचता था कि ये “सुदर्शन व्यक्ति” हमारे लिये कुछ करेंगे, लेकिन दूसरे सुदर्शन युवराज तो अब एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि गरीबों तक आते-आते सिर्फ़ पाँच पैसा रह जाता है। यही बात तो जनता जानना चाहती है, कि राहुल बाबा ये बतायें कि 15 पैसे से 5 पैसे बचने तक उन्होंने क्या किया है, कितने भ्रष्टाचारियों को बेनकाब किया है? भ्रष्ट जज दिनाकरण के महाभियोग प्रस्ताव पर एक भी कांग्रेसी सांसद हस्ताक्षर नहीं करता, लेकिन राहुल बाबा ने कभी इस बारे में एक शब्द भी कहा? “नरेगा” का ढोल पीटते नहीं थकते, लेकिन क्या राजकुमार को यह पता भी है कि अरबों का घालमेल और भ्रष्टाचार इसमें चल रहा है? हाल के पंचायत चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में ही सरपंच का चुनाव लड़ने के लिये ग्रामीण दबंगों ने 1 करोड़ रुपये तक खर्च किये हैं (और ये हाल तब हैं जब मप्र में भाजपा की सरकार है, सोचिये कांग्रेसी राज्यों में “नरेगा” कितना कमाता होगा…), क्योंकि उन्हें पता है कि अगले पाँच साल में “नरेगा” उन्हें मालामाल कर देगा… कभी युवराज के मुँह से इस बारे में भी सुना नहीं गया। अक्सर कांग्रेसी हलकों में एक सवाल पूछा जाता है कि मुम्बई हमले के समय ठाकरे परिवार क्या कर रहा था, आप खुद ही देख लीजिये कि राहुल बाबा भी उस समय एक फ़ार्म हाउस पर पार्टी में व्यस्त थे… और वहाँ से देर सुबह लौटे थे… जबकि दिल्ली के सत्ता गलियारे में रात दस बजे ही हड़कम्प मच चुका था, लेकिन पार्टी जरूरी थी… उसे कैसे छोड़ा जा सकता था।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

नेहरू -गाँधी परिवार का सच (?)

आजकल जबसे "बबुआ" राहुल गाँधी ने राजनीति में आकर अपने बयान देना शुरू कर दिया है, तब से "नेहरू राजवंश" नामक शब्द बार-बार आ रहा है । नेहरू राजवंश अर्थात Nehru Dynasty... इस सम्बन्ध में अंग्रेजी में विभिन्न साईटों और ग्रुप्स में बहुत चर्चा हुई है....बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसका हिन्दी में अनुवाद करूँ या नहीं, गूगल बाबा पर भी खोजा, लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद कहीं नहीं मिला, इसलिये फ़िर सोचा कि हिन्दी के पाठकों को इन महत्वपूर्ण सूचनाओं से महरूम क्यों रखा जाये. यह जानकारियाँ यहाँ, यहाँ तथा और भी कई जगहों पर उपलब्ध हैं मुख्य समस्या थी कि इसे कैसे संयोजित करूँ, क्योंकि सामग्री बहुत ज्यादा है और टुकडों-टुकडों में है, फ़िर भी मैने कोशिश की है इसका सही अनुवाद करने की और उसे तारतम्यता के साथ पठनीय बनाने की...जाहिर है कि यह सारी सामग्री अनुवाद भर है, इसमें मेरा सिर्फ़ यही योगदान है... हालांकि मैने लगभग सभी सन्दर्भों (references) का उल्लेख करने की कोशिश की है, ताकि लोग इसे वहाँ जाकर अंग्रेजी में पढ सकें, लेकिन हिन्दी में पढने का मजा कुछ और ही है... बाकी सब पाठकों की मर्जी...हजारों-हजार पाठकों ने इसे अंग्रेजी में पढ ही रखा होगा, लेकिन जो नहीं पढ़ पाये हैं और वह भी हिन्दी में, तो उनके लिये यह पेश है...


"नेहरू-गाँधी राजवंश (?) की असलियत"...इसको पढने से हमें यह समझ में आता है कि कैसे सत्ता शिखरों पर सडाँध फ़ैली हुई है और इतिहास को कैसे तोडा-मरोडा जा सकता है, कैसे आम जनता को सत्य से वंचित रखा जा सकता है । हम इतिहास के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि वह हमें सत्ताधीशों द्वारा बताया जाता है, समझाया जाता है (बल्कि कहना चाहिये पीढी-दर-पीढी गले उतारा जाता है) । फ़िर एक समय आता है जब हम उसे ही सच समझने लगते हैं क्योंकि वाद-विवाद की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती । हमारे वामपंथी मित्र इस मामले में बडे़ पहुँचे हुए उस्ताद हैं, यह उनसे सीखना चाहिये कि कैसे किताबों में फ़ेरबदल करके अपनी विचारधारा को कच्चे दिमागों पर थोपा जाये, कैसे जेएनयू और आईसीएचआर जैसी संस्थाओं पर कब्जा करके वहाँ फ़र्जी विद्वान भरे जायें और अपना मनचाहा इतिहास लिखवाया जाये..कैसे मीडिया में अपने आदमी भरे जायें और हिन्दुत्व, भारत, भारतीय संस्कृति को गरियाया जाये...ताकि लोगों को असली और सच्ची बात कभी पता ही ना चले... हम और आप तो इस खेल में कहीं भी नहीं हैं, एक पुर्जे मात्र हैं जिसकी कोई अहमियत नहीं (सिवाय एक ब्लोग लिखने और भूल जाने के)...तो किस्सा-ए-गाँधी परिवार शुरु होता है साहेबान...शुरुआत होती है "गंगाधर" (गंगाधर नेहरू नहीं), यानी मोतीलाल नेहरू के पिता से । नेहरू उपनाम बाद में मोतीलाल ने खुद लगा लिया था, जिसका शाब्दिक अर्थ था "नहर वाले", वरना तो उनका नाम होना चाहिये था "मोतीलाल धर", लेकिन जैसा कि इस खानदान की नाम बदलने की आदत थी उसी के मुताबिक उन्होंने यह किया । रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज की किताब "ए लैम्प फ़ॉर इंडिया - द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित" में उस तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा है, जिसके अनुसार गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान था, जिसका असली नाम गयासुद्दीन गाजी था. लोग सोचेंगे कि यह खोज कैसे हुई ?

दरअसल नेहरू ने खुद की आत्मकथा में एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगा धर थे, ठीक वैसा ही जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत (बहादुरशाह जफ़र के समय) में नगर कोतवाल थे. अब इतिहासकारों ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफ़र के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था..और खोजबीन पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ, जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे, लेकिन किसी गंगा धर नाम के व्यक्ति का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला (मेहदी हुसैन की पुस्तक : बहादुरशाह जफ़र और १८५७ का गदर, १९८७ की आवृत्ति), रिकॉर्ड मिलता भी कैसे, क्योंकि गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर से डर कर बदला गया था, असली नाम तो था "गयासुद्दीन गाजी" । जब अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था,तब मुगलों और मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था (जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं), अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे, जो हिन्दू राजाओं (पृथ्वीराज चौहान ने) ने मुसलमान आक्रांताओं को जीवित छोडकर की थी, इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया, लेकिन कुछ मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाकों मे चले गये थे । उसी समय यह परिवार भी आगरा की तरफ़ कूच कर गया...हमने यह कैसे जाना ? नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोक कर पूछताछ की थी, लेकिन तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं, बल्कि कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया... बाकी तो इतिहास है ही । यह "धर" उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है, और इसी का अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह "दर" या "डार" हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है । लेकिन मोतीलाल ने नेहरू नाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे । इतने पीछे से शुरुआत करने का मकसद सिर्फ़ यही है कि हमें पता चले कि "खानदानी" लोग क्या होते हैं । कहा जाता है कि आदमी और घोडे़ को उसकी नस्ल से पहचानना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति और घोडा अपनी नस्लीय विशेषताओं के हिसाब से ही व्यवहार करता है, संस्कार उसमें थोडा सा बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उसका मूल स्वभाव आसानी से बदलता नहीं है.... फ़िलहाल गाँधी-नेहरू परिवार पर फ़ोकस...


अपनी पुस्तक "द नेहरू डायनेस्टी" में लेखक के.एन.राव (यहाँ उपलब्ध है) लिखते हैं....ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी । कमला शुरु से ही इन्दिरा के फ़िरोज से विवाह के खिलाफ़ थीं... क्यों ? यह हमें नहीं बताया जाता...लेकिन यह फ़िरोज गाँधी कौन थे ? फ़िरोज उस व्यापारी के बेटे थे, जो "आनन्द भवन" में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था...नाम... बताता हूँ.... पहले आनन्द भवन के बारे में थोडा सा... आनन्द भवन का असली नाम था "इशरत मंजिल" और उसके मालिक थे मुबारक अली... मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे...खैर...हममें से सभी जानते हैं कि राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं... और अधिकतर परिवारों में दादा और पिता का नाम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, बजाय नाना या मामा के... तो फ़िर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था.... किसी को मालूम है ? नहीं ना... ऐसा इसलिये है, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाय करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में... नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया... फ़िरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था "घांदी" (गाँधी नहीं)... घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था...विवाह से पहले फ़िरोज गाँधी ना होकर फ़िरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था...हमें बताया जाता है कि राजीव गाँधी पहले पारसी थे... यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं । शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था... अब आप खुद ही सोचिये... एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों... थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा "मैमूना बेगम") । नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था...जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये... तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये...खैर... उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक "रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज" (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि "पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे "सिविल मैरिज" होना चाहिये था" । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फ़िरोज अलग हो गये थे, हालाँकि तलाक नहीं हुआ था । फ़िरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे, और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे । तंग आकर नेहरू ने फ़िरोज का "तीन मूर्ति भवन" मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फ़िरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बडी़ राहत मिली थी । १९६० में फ़िरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी, जबकि वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे । अपुष्ट सूत्रों, कुछ खोजी पत्रकारों और इन्दिरा गाँधी के फ़िरोज से अलगाव के कारण यह तथ्य भी स्थापित हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी (या श्रीमती फ़िरोज खान) का दूसरा बेटा अर्थात संजय गाँधी, फ़िरोज की सन्तान नहीं था, संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस का बेटा था । संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था । ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था (इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था) । अब संयोग पर संयोग देखिये... संजय गाँधी का विवाह "मेनका आनन्द" से हुआ... कहाँ... मोहम्मद यूनुस के घर पर (है ना आश्चर्य की बात)... मोहम्मद यूनुस की पुस्तक "पर्सन्स, पैशन्स एण्ड पोलिटिक्स" में बालक संजय का इस्लामी रीतिरिवाजों के मुताबिक खतना बताया गया है, हालांकि उसे "फ़िमोसिस" नामक बीमारी के कारण किया गया कृत्य बताया गया है, ताकि हम लोग (आम जनता) गाफ़िल रहें.... मेनका जो कि एक सिख लडकी थी, संजय की रंगरेलियों की वजह से गर्भवती हो गईं थीं और फ़िर मेनका के पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी, फ़िर उनकी शादी हुई और मेनका का नाम बदलकर "मानेका" किया गया, क्योंकि इन्दिरा गाँधी को "मेनका" नाम पसन्द नहीं था (यह इन्द्रसभा की नृत्यांगना टाईप का नाम लगता था), पसन्द तो मेनका, मोहम्मद यूनुस को भी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एक मुस्लिम लडकी संजय के लिये देख रखी थी । फ़िर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं, क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ़ एक तौलिये में विज्ञापन किया था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कृत्यों पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने की छूट दी । ऐसा प्रतीत होता है कि शायद संजय गाँधी को उसके असली पिता का नाम मालूम हो गया था और यही इन्दिरा की कमजोर नस थी, वरना क्या कारण था कि संजय के विशेष नसबन्दी अभियान (जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था) के दौरान उन्होंने चुप्पी साधे रखी, और संजय की मौत के तत्काल बाद काफ़ी समय तक वे एक चाभियों का गुच्छा खोजती रहीं थी, जबकि मोहम्मद यूनुस संजय की लाश पर दहाडें मार कर रोने वाले एकमात्र बाहरी व्यक्ति थे...। (संजय गाँधी के तीन अन्य मित्र कमलनाथ, अकबर अहमद डम्पी और विद्याचरण शुक्ल, ये चारों उन दिनों "चाण्डाल चौकडी" कहलाते थे... इनकी रंगरेलियों के किस्से तो बहुत मशहूर हो चुके हैं जैसे कि अंबिका सोनी और रुखसाना सुलताना [अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ] के साथ इन लोगों की विशेष नजदीकियाँ....)एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं - "१९४८ में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था । वह संस्कृत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृति की अच्छी जानकार थी । नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था, नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये । मथाई के शब्दों में - एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा, वह बहुत ही जवान, खूबसूरत और दिलकश थी - । एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये, नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया, और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर १९४९ में बेंगलूर के एक कॉन्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया । उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कॉन्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं, पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया ।

मथाई लिखते हैं - मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफ़ी कोशिश की, लेकिन कॉन्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस, जो कि एक विदेशी महिला थी, बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा.....लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कैथोलिक संस्कारों में बडा करूँ, चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो.... लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था.... खैर... हम बात कर रहे थे राजीव गाँधी की...जैसा कि हमें मालूम है राजीव गाँधी ने, तूरिन (इटली) की महिला सानिया माईनो से विवाह करने के लिये अपना तथाकथित पारसी धर्म छोडकर कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया था । राजीव गाँधी बन गये थे रोबेर्तो और उनके दो बच्चे हुए जिसमें से लडकी का नाम था "बियेन्का" और लडके का "रॉल" । बडी ही चालाकी से भारतीय जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये राजीव-सोनिया का हिन्दू रीतिरिवाजों से पुनर्विवाह करवाया गया और बच्चों का नाम "बियेन्का" से बदलकर प्रियंका और "रॉल" से बदलकर राहुल कर दिया गया... बेचारी भोली-भाली आम जनता !

प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने लन्दन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अपने-आप को पारसी की सन्तान बताया था, जबकि पारसियों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, क्योंकि वे तो एक मुस्लिम की सन्तान थे जिसने नाम बदलकर पारसी उपनाम रख लिया था । हमें बताया गया है कि राजीव गाँधी केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक थे, यह अर्धसत्य है... ये तो सच है कि राजीव केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे, लेकिन उन्हें वहाँ से बिना किसी डिग्री के निकलना पडा था, क्योंकि वे लगातार तीन साल फ़ेल हो गये थे... लगभग यही हाल सानिया माईनो का था...हमें यही बताया गया है कि वे भी केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की स्नातक हैं... जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया स्नातक हैं ही नहीं, वे केम्ब्रिज में पढने जरूर गईं थीं लेकिन केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में नहीं । सोनिया गाँधी केम्ब्रिज में अंग्रेजी सीखने का एक कोर्स करने गई थी, ना कि विश्वविद्यालय में (यह बात हाल ही में लोकसभा सचिवालय द्वारा माँगी गई जानकारी के तहत खुद सोनिया गाँधी ने मुहैया कराई है, उन्होंने बडे ही मासूम अन्दाज में कहा कि उन्होंने कब यह दावा किया था कि वे केम्ब्रिज की स्नातक हैं, अर्थात उनके चमचों ने यह बेपर की उडाई थी)। क्रूरता की हद तो यह थी कि राजीव का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाजों के तहत किया गया, ना ही पारसी तरीके से ना ही मुस्लिम तरीके से । इसी नेहरू खानदान की भारत की जनता पूजा करती है, एक इटालियन महिला जिसकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह इस खानदान की बहू है आज देश की सबसे बडी पार्टी की कर्ताधर्ता है और "रॉल" को भारत का भविष्य बताया जा रहा है । मेनका गाँधी को विपक्षी पार्टियों द्वारा हाथोंहाथ इसीलिये लिया था कि वे नेहरू खानदान की बहू हैं, इसलिये नहीं कि वे कोई समाजसेवी या प्राणियों पर दया रखने वाली हैं....और यदि कोई सानिया माइनो की तुलना मदर टेरेसा या एनीबेसेण्ट से करता है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है और हिन्दुस्तान की बदकिस्मती पर सिर धुनना ही होगा...

यह अनुवाद सिर्फ़ इसीलिये किया गया है कि जो बात बरसों पहले से ही अंग्रेजी में उपलब्ध है, उसे हिन्दी में भी अनुवादित भी होना चाहिये.... यह करने के पीछे उद्देश्य किसी का दिल दुखाना नहीं है, ना ही अपने चिठ्ठे की टीआरपी बढाने का है... हाँ यह स्वार्थ जरूर है कि यदि पाठकों को अनुवाद पसन्द आया तो इस क्षेत्र में भी हाथ आजमाया जाये और इस गरीब की झोली में थोडा़ सा नावां-पत्ता आ गिरे....

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

हिन्दू होने पर गर्व क्यों ?

सन् 1857 की क्रांति में पराधीनता से मुक्त होने के असफल प्रयास से समाज के मन में ग्लानी का भाव आया। प्रबुद्ध वर्ग में हिन्दुत्व के बारे में हीनता का बोध उत्पन्न हुआ। मुझे गधा कह लो, हिन्दू मत कहो। इस तरह के नकारात्मक भाव की उत्पत्ति हुई थी। इस विषम परिस्थति में स्वामीं विवेकानन्द ने गौरव के भाव को जागृत किया तथा हिन्दू समाज में नये जोश और उत्साह का संचार किया। अपने विस्मृत स्वाभिमान को झकझोरने का कार्य किया। राष्ट्र धर्म एवं संस्कृति की पताका सन् 1893 में शिकागों में सर्वधर्मसम्मेलन में फहराई गई। समूची दुनिया का ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर खींचने में सफल हुए। स्वामीजी का कथन है कि ‘‘जब कोई अपने पूर्वजों पर ग्लानी महसूस करें तो समझना चाहिए उसका अंत आ गया है।‘‘ स्वामीजी ने राष्ट्र.धर्म.संस्कृति के प्रति गौरवपूर्ण भाव का जागरण कर हिन्दुत्व को गौरवान्वित किया। इसी बीच सन् 1925 को परम पूजनीय डॉ. साहब के नेतृत्व मार्गदर्शन में ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘‘ की स्थापना भी इसी कड़ी में एक चरण था। सन् 2002 में राष्ट्र जागरण का ध्येय वाक्य था, ‘‘गर्व से कहों हम हिन्दू है।‘‘ भारत दुनिया का सबसे प्राचीनतम देश हैं। भारतीय हिन्दू संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम और अद्भुत विज्ञान सम्मत संस्कृति है। अपने लिए गौरव का विषय है कि शाश्वत ज्ञान के रूप में हमारे पास वेद है। वेदों में सृष्टि रचना से लेकर अन्यान्य विषयों का लौकिक और पारलौकिक ज्ञान का भंडार भरा हुआ है। इन वेदों के माध्यम से हम अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय विरासत का बोध सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हमारे पास है। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारी संस्कृति विश्व का प्राण है। हिन्दू धर्म के बाद अन्य धर्म प्रकाश में आये। ध्यान से देखने समझने पर ज्ञात होता है कि मूल अवधारना वेदो से ही प्राप्त करके अन्य धर्मग्रन्थों का निर्माण हुआ। अन्य धर्म ग्रन्थो का उद्गम स्थल वेद ही है। यह प्रतीत होता है कि शाश्वत.सनातन ज्ञान के रूप में परमात्मा ने हमें ज्ञान स्वरूप वेद प्रदान किये है। अपने ही पूर्वजों द्वारा सत्य की खोज एवं उसका प्रचार.प्रसार सारी दुनिया में किया है। सारी दुनिया को कपड़े पहनना और मानवीय मूल्यों का ज्ञान हिन्दुस्तान ने ही सिखाया है। सम्पूर्ण विश्व को अपना मानने का भाव ‘‘कृणवन्तो विश्वमार्यम्‘‘ हमारी संस्कृति ने प्रदान किया है। विश्व पटल पर जो भी दिखाई देता है वह सब कुछ वेदों की कृपा से ही प्राप्त किया हुआ है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को चरित्र की शिक्षा सीखने का आव्हान हमने किया है।

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‘‘एतद्देश्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं.स्वं चरित्रं शिक्षेस् पृथिव्यां सर्व मानवाः‘‘
समुचा वसुंधरा परिवार हमारा है। यह उदात्त भाव हमारे हिन्दू समाज ने विश्व को दिया है। हिन्दू धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सूत्रों से गूँथा हुआ है। एक.एक सूत्र अद्भुत् विलक्षणता लिए हुए है। इनका साक्षात्कार व्यक्ति को लघु से महान् और महान से महानतम बनने की प्रेरणा प्रदान करता है। सच्चे अर्थो में मानव जाति की कर्तव्य संहिता है, हिन्दू धर्म। समूची दुनिया की भौगोलिक और सांस्कृतिक रचना को देखने पर ज्ञात होता है कि आज भी विश्व में सर्वत्र हिन्दुत्व के अवशेष फैले हुए है, तथा हिन्दुत्व के प्रति श्रद्धा भाव है।

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आपको विदित है डॉ. वाकणकर का अमेरिका में रेड इंडियनों के साथ यज्ञ करने का प्रसंग? डॉ. रघुवीर का साइबेरिया का यात्रा प्रसंग? गंगाजल मांगने का उदाहरण? सिकंदर के गुरू का भारत से गीता, गंगाजल और एक गुरु लाने के लिए कहना? विश्व में अपने प्रभाव का प्रमाण है।

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हमारे धर्म ने समूची मानवजाति के लिए चार पुरुषार्थों क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विवरण प्रस्तुत किया है। धर्म और मोक्ष के बीच विवेकपूर्वक अर्जन तथा उपभोग करने की दृष्टि प्रदान की है। संसार मंे जो कुछ भी है, वह परमात्मा का है। उसका त्यागपूर्वक उपभोग करने की शिक्षा हमारे धर्म ने ही दी है।
‘‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।‘
तेन त्यक्तेन् भुंजीया मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।‘‘
विश्व के चार प्रतिशत अमेरिका वासी, चालीस प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करते है। इसी साम्राज्यवाद के कारण विश्व में चारों ओर अशांति दिखाई पड़ रही है। इस घोर अशांति के जनक भोगवादी संस्कृति के उपासक ही है।

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हमने विश्व को चार आश्रम क्रमशः ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के रूप में अत्यंत मंगलकारी व्यवस्था का बोध कराया है। इन आश्रमों के अनुरूप जीवन यापन करने से समाज एवं राष्ट्र की सर्वाेपरी सेवा की जा सकती है। समाज रचना का यह सुन्दर स्वरूप अन्य धर्माे में दृष्टिगोचर नहीं होता चूँकि इनकी विस्तृत व्याख्या करना यहाँ पर प्रासंगिक नहीं है। समाज और राष्ट्र को सुव्यवस्थित संचालित करने के लिए गुण, कर्मोे के अनुरूप चार वर्णो में विभाजित किया गया है। वर्णव्यवस्था और समाज रचना अपनी विशेषता है। ‘‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं, गुणकर्म विभागशः।‘‘ हम समाज जीवन की सभी विधाओ में श्रेष्ठ थे। यथा विज्ञान, विमान शास्त्र, नौका यान, रसायन शास्त्र, और गणित जैसे सभी विषयों में और व्यापार और वाणिज्य में भी दुनिया में फैले हुए है। झारखण्ड की जनजातियों द्वारा लौह निर्माण की कला को जानना, हमारे लिए अत्यन्त गौरव का विषय है।

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सन् 2011 से युग परिवर्तन की घोषणा परम् पूज्यनीय सरसंघचालक एवं पं. आचार्य श्रीराम शर्मा के द्वारा की गई है। वहीं डॉ. कलाम के अनुसार सन् 2020 में भारत पुनः विश्व गुरु बनेगा। हम पुनः शक्तिशाली बने तथा विश्व का मार्गदर्शन करें।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

शमशेर: जीवन ही संदेश.............

सहजता अगर मनुष्य का गुण है तो शमशेर बहादुर सिंह का जीवन और काव्य उसका उदाहरण है। न औपचारिकता, न पाखंड। जैसा जीवन, वैसा लेखन। उनके अनुभव का सूत्र पकड में आ जाये तो दुरूह जान पडने वाली कविता भी खुल जाती है। लेकिन वे मानते थे, कला कलेंडर की चीज नहीं। इसलिए अपने अनुभव का निजीपन, जहां तक हो सके, उसे खुलने से रोकते थे। फिर भी सहज थे, सरल नहीं। सरलता तो कभी-कभी नासमझी से भरी होती है। सहजता जीवन का ताप सहकर आती है। कबीर उसे सहज साधना कहते थे। शमशेर को भी साधना से ही सहजता प्राप्त हुई है। अपने प्रिय कवि निराला को याद करते हुए शमशेर ने लिखा था-

भूल कर जब राह- जब-जब राह.. भटका मैं/ तुम्हीं झलके हे महाकवि,/ सघन तम की आंख बन मेरे लिए।

घने अंधेरे में शमशेर के लिए आंख बन निराला इसलिए झलके कि दोनों का जीवन साम्य लिये हुए था। एक जैसा आर्थिक और भावात्मक अभाव। बचपन में मां की मृत्यु, युवाकाल में पत्नी की मृत्यु, अनियमित रोजगार और अकेलापन। देर से ही सही, उन्हें बडे-बडे पुरस्कार भी मिले- साहित्य अकादमी (1977), मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार (1987), कबीर सम्मान (1989)।

शमशेर का जन्म तारीफ सिंह के पुत्र के रूप में 3 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ। मृत्यु 12 मई 1993 को अहमदाबाद में। देहरादून ननिहाल था। अहमदाबाद उनपर शोधकर्ती रजना अरगडे का निवास, जो अब वहीं प्रोफेसर और विदुषी हैं। शमशेर के भाई तेज बहादुर उनसे दो साल छोटे थे। उनकी मां परम देवी दोनों भाइयों को राम-लक्ष्मण की जोडी कहती थीं। शमशेर 8-9 साल के थे जब वे संसार छोड गयीं। लेकिन यह जोडी शमशेर की मृत्यु तक बनी रही।

शमशेर चौबीस वर्ष के थे जब उनकी पत्नी धर्मवती छ: वर्ष के साथ के बाद 1935 में टीबी से दिवंगत हुई। जीवन का यह अभाव कविता में विभाव बनकर हमेशा मौजूद रहा। काल ने जिसे छीन लिया, उसे अपनी कविता में सजीव रखकर शमशेर काल से होड लेते रहे।

युवाकाल में शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील साहित्य से प्रभावित हुए। शमशेर का अपना जीवन निम्नमध्यवर्गी का औसत जीवन था। शायद कुछ अधिक निम्न। उन्होंने स्वाधीनता और क्रांति को अपनी निजी चीज की तरह अपनाया। इंद्रिय-सौंदर्य के सबसे संवेदनापूर्ण चित्र देकर भी वे अज्ञेय की तरह सौंदर्यवादी नहीं हैं। उनमें एक ऐसा कडियलपन है जो उनकी विनम्रता को ढुलमुल नहीं बनने देता, साथ ही किसी एक चौखटे में बंधने भी नहीं देता। वे खुद मानते हैं कि इलियट-एजरा पाउंड-उर्दू दरबारी कविता का रुग्ण प्रभाव उनपर है, लेकिन उनका स्वस्थ सौंदर्यबोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है। वे सौंदर्य के अनूठे चित्रों से स्त्रष्टा के रूप में हिंदी में सर्वमान्य हैं-

1. मोटी धुली लॉन की दूब,

साफ मखमल-सी कालीन।

ठंडी धुली सुनहली धूप।

2. बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी, खुले हैं/ श्याम पथ पर/ स्थिर हुए-से, चल।

शमशेर के राग-विराग गहरे और स्थायी थे। अवसरवादी ढंग से विचारों को अपनाना-छोडना उनका काम नहीं था। अपने मित्र-कवि केदारनाथ अग्रवाल की तरह शमशेर एक तरफ यौवन की उमडती यमुनाएं अनुभव कर सकते थे, दूसरी तरफ लहू भरे गवालियर के बाजार में जुलूस भी देख सकते थे। उनके लिए निजता और सामाजिकता में अलगाव और विरोध नहीं था, बल्कि दोनों एक ही अस्तित्व के दो छोर थे। नाहक ही टूटी हुई, बिखरी हुई उनकी प्रतिनिधि कविता नहीं मानी जाती। उनमें शमशेर ने लिखा है- दोपहर बाद की धूप-छांह में खडी इंतजार की ठेलेगाडियां/ जैसे मेरी पसलियां../ खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं.. जो/ मेरी आंखों का सूनापन है। इंतजार की ठेलेगाडियां ही मानो पसलियां हैं और खाली बोरे से आंखों का सूनापन। ठहराव, अभाव और व्यर्थता परिवेश में है, जीवन में भी।

ज्यादातर समकालीन कवियों का इतिहास-बोध 20-25 साल या 50-60 साल से पीछे नहीं जाता। अपनी चर्चा के अलावा कुछ और नहीं भाता। लेकिन चिंतन में ही नहीं, सृजन में भी इतिहास का जितना गहरा बोध होता है, कवि उतना ही विशिष्ट और महत्वपूर्ण होता है। साथ ही, अपने समय को ज्यादा गहराई से समझने में सक्षम भी होता है।

शमशेर उन कवियों में थे, जिनके लिए मा‌र्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में विरोध नहीं था। प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे- भोर के नभ को नीले शंख की तरह वही देख सकता है जो भारतीय परंपरा से ओत-प्रोत है। शमशेर सूर्योदय से डरने वालों में नहीं हैं, न सूर्यास्त से कतराने वालों में हैं। वैदिक कवियों की तरह वे प्रकृति की लीला को पूरी तन्मयता से अपनाते हैं-

1. जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।

सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता।

2. सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता

केश-तन में झिलमिला कर डूब जाता..

जागरण का सूर्य हो या डूबने का सूर्य, शमशेर दोनों को अपनी पुतलियों में स्नान कराते हैं। उनमें ही यह क्षमता हो सकती थी कि अपने को हिंदी और उर्दू का दोआब कहकर सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सांप्रदायिकता को निरस्त करें; वे ही रूढिवाद-जातिवाद का उपहास करते हुए कह सकते थे, क्या गुरुजी मनु ऽ जी को ले आयेंगे? हो गये जिनको लाखों जनम गुम हुए। यह सहज बेबाकी इसलिए है कि- मुझे बादशाहत नहीं चाहिए/मगर तू ही कुल मेरी दुनिया है क्यों।

नम्रता और दृढता, फाकामस्ती और आत्मविश्वास से बना शमशेर का कवि-व्यक्तित्व अपनी पूरी गरिमा के साथ हमारे बीच मौजूद है। जन्मशती के मौके पर उनके इन गुणों को पहचानना, याद करना, और हो सके तो अपनाना, केवल श्रद्धांजलि नहीं है, अपना संस्कार भी है।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

विज्ञापन का मायाजाल

विज्ञापन की दुनिया काफी मायावी है। बाजारीकरण के मौजूदा दौर में इसकी महत्ता में दिनोंदिन इजाफा ही होता जा रहा है। एक दौर वह भी था जब सूचना और विज्ञापन में कोई खास अन्तर नहीं था।

यह भी कहा जा सकता है कि विज्ञापन को सूचना देने का जरिया माना जाता था। पर, यह अवधारणा काफी पहले ही खंडित हो चुकी है। आज तो हालात ऐसे है कि विज्ञापन का पूरा करोबार ‘जो दिखता है वही बिकता है’ के तर्ज पर चल रहा है। मांग और आपूर्ति की अवधारणा को तोड़ते हुए अब मांग पैदा करने पर जोर है। आज विज्ञापन का मूल उद्देश्य सूचना प्रदान करने की बजाए उत्पाद विशेष के लिए बाजार तैयार करना बन कर रह गया है।

विज्ञापन का इतिहास भी काफी पुराना है। मौजूदा रूप तक पहुंचने के लिए इसने लंबा सफर तय किया है। वैश्विक स्तर पर अगर देखा जाए तो विज्ञापन की शुरूआत के साक्ष्य 550 ईसा पूर्व से ही मिलते हैं। भारत में भी विज्ञापन की शुरुआत सदियों पहले हुई है। यह बात और है कि समय के साथ इसके तौर-तरीके बदलते गए।

बहरहाल, अगर ऐतिहासिक साक्ष्यों को खंगाला जाए तो पता चलता है कि शुरूआती दौर में विज्ञापन, मिश्र, यूनान और रोम में प्रचलित रहा है। मिश्र में विज्ञापन कार्य के लिए पपाईरस का प्रयोग किया जाता था। उल्लेखनीय है पपाईरस पेड़ के तने में एक खास तरह की वस्तु होती थी, जिस पर कुछ लिखा जा सकता था। वहां इस पर संदेश अंकित करके इसका प्रयोग पोस्टर के रूप में किया जाता था। इसे दीवार पर चिपका दिया जाता था। वहीं प्राचीन यूनान और रोम में इसका प्रयोग खोया-पाया विज्ञापनों के लिए किया जाता था। दीवारों और पत्थरों पर पेंटिंग के जरिए भी उस दौर में विज्ञापन किया जाता था। अगर वाल पेंटिंग को भी विज्ञापन के प्रेषण का माध्यम मान लिया जाए तो इसका इतिहास तो और भी पुराना है। ऐसे साक्ष्य मिले हैं जिनके आधार पर इसकी शुरुआत चार हजार वर्ष ईसा पूर्व मानी जा सकती है।

खैर! ये उस दौर की बात है जब नई तकनीकों का ईजाद नहीं हो पाया था। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, विज्ञान ने पूरे परिदृश्य में ही क्रांतिकारी बदलाव ला दिया। इस वजह से कई कार्यों में सुगमता तो आयी ही, साथ ही साथ अनेक मोर्चों पर काम करने का ढंग भी बदल गया। जाहिर है, तकनीक के प्रभाव से विज्ञापन भी नहीं बच पाया।

पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के दौरान मुद्रण के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुआ। प्रिंटिंग मशीनों का चलन बढ़ने लगा। इस वजह से विज्ञापन के लिए छपे हुए पर्चों का प्रयोग होने लगा। वर्तमान युग में विज्ञापनों के बिना किसी अखबार का चलना असंभव सरीखा ही लगता है। पर, शुरूआती दौर में लंबे समय तक अखबारों ने विज्ञापन से दूरी बनाए रखी थी। वैसे कई जानकार ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि उस वक्त लोग यह सोच ही नहीं पाते थे कि विज्ञापन का जरिया अखबार भी बन सकता है। इस तर्क को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता है।

समाचार पत्रों में विज्ञापन की शुरुआत सत्रहवीं शताब्दी में हुई। इसकी शुरूआत इंग्लैंड के साप्ताहिक अखबारों से हुई थी। उस समय पुस्तक और दवाओं के विज्ञापन प्रकाशित किए जाते थे। अठारवीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में काफी प्रगति हुई। इस सदी में अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही थी। इस वजह से विज्ञापन को भी मजबूती मिल रही थी। इसी दौर में वर्गीकृत विज्ञापनों का चलन शुरू हुआ जो अभी भी काफी लोकप्रिय है। इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई, जहां अखबारों में खबर लगाने के बाद बीच-बीच में बचे हुए छोटे-छोटे स्थानों पर सूचनात्मक विज्ञापनों का प्रयोग फिलर के तौर पर होता था। आज विज्ञापनों का महत्व कितना बढ़ गया है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि कई अखबारों में विज्ञापन देने के बाद बची जगह में ही खबर लगाई जाती है।

कहा जा सकता है कि खबरों का प्रयोग ही विज्ञापनों के लिए फिलर के तौर पर किया जा रहा है। विज्ञापनों की ताकत में साफ तौर पर काफी ईजाफा हुआ है। विज्ञापन के इतिहास का एक अहम मोड़ वर्गीकृत विज्ञापनों को कहा जा सकता है। दुनिया की पहली विज्ञापन एजेंसी 1841 में बोस्टन में खुली। इसका नाम वालनी पामर था। इसी एजेंसी ने अखबारों से विज्ञापन के एवज में कमीशन लेने की शुरूआत की। उस वक्त यह एजेंसी पच्चीस प्रतिशत कमीशन लेती थी।

मौजूदा दौर में विज्ञापन में महिलाओं के बढ़ते प्रयोग पर काफी चिंता जताई जा रही है। आज महिलाओं के जरिए विज्ञापन में कामुक पुट डालना आम बात है। शायद ही कोई ऐसा विज्ञापन दिखता है जिसमें प्रदर्शन के रूप में नारी देह का प्रयोग नहीं किया गया हो। विज्ञापन निर्माताओं के लिए यह बात कोई खास मायने नहीं रखती है कि विज्ञापित वस्तु महिलाओं के प्रयोग की है या नहीं। कई विज्ञापन तो ऐसे भी होते हैं जिनमें महिलाओं की कोई आवश्यकता नहीं है। पर यह बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का ही असर है कि नारी की काया को बिकने वाले उत्पाद में परिवर्तित कर दिया गया है। इसके सहारे पूंजी उगाहने का भरसक प्रयास किया जाता है।

वैसे बीसवीं सदी की शुरुआत से ही विज्ञापनों में औरतों का प्रयोग होने लगा था। उस वक्त विज्ञापन बनाने वालों ने यह तर्क दिया कि महिलाएं घर की खरीददारी में अहम भूमिका निभाती हैं। इस लिहाज से उनका विज्ञापनों में प्रयोग किया जाना फायदे का सौदा है। विज्ञापन के क्षेत्र में पहले पुरुष ही होते थे, किंतु बाद में इस काम से महिलाएं भी जुड़ने लगीं। वस्तुत: नारी को सेक्सुअल रूप में पेश करने वाला दुनिया का पहला विज्ञापन भी एक अमेरिकी महिला ने ही बनाया था। उसके बाद तो इस चलन को अद्भुत सफलता मिली। अब तो बगैर सेक्सी लड़की को दिखाए विज्ञापन पूरा ही नहीं होता है। ब्लेड से लेकर ट्रक तक के विज्ञापन में नारी काया की माया का सहारा लिया जा रहा है। उस वक्त तो विज्ञापनों के लिए प्रिंट ही एकमात्र माध्यम था। इलैक्ट्रानिक माध्यम के आने के बाद नारी को और विकृत रूप में दिखाने की होड़ लग गई।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से रेडियो का प्रसारण आरम्भ हुआ। उस समय कार्यक्रमों का प्रसारण बगैर विज्ञापन के किया जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि पहला रेडियो स्टेशन स्वयं रेडियो की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया था। जब रेडियो स्टेशनों की संख्या बढ़ी तो बाद में चलकर इसमें विज्ञापनों की शुरुआत प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिए हुई। उस वक्त विज्ञापन देने वालों के व्यवसाय से संबंधित जानकारी कार्यक्रम की शुरुआत और आखिरी में दी जाती थी।

उसके बाद रेडियो स्टेशन चलाने वालों ने अधिक पैसा कमाने के लिए नया रास्ता निकाला। पूरा कार्यक्रम प्रायोजित करने के बजाए एक ही कार्यक्रम में छोटे-छोटे टाइम स्लाट के लिए विज्ञापन ढूंढे गए। यह प्रयोग काफी सफल रहा। आज भी सामान्य तौर पर विज्ञापन के इसी फारमेट का प्रयोग रेडियो पर होता है। इसी ट्रेंड को टेलीविजन ने भी अपनाया। इंग्लैंड में इस बात को लेकर विवाद भी हुआ कि रेडियो एक जनमाध्यम है और इसका प्रयोग व्यावसायिक हितों के लिए नहीं होना चाहिए। पर समय के साथ रेडियो की ताकत और पहुंच बढ़ती गई। साथ ही साथ विज्ञापन के लिए भी यह सशक्त माध्यम बनता गया।

पचास के दशक में टेलीविजन पर भी छोटे-छोटे टाइम स्लाटों पर विज्ञापन दिखाया जाने लगा। टीवी की दुनिया में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि, पूरे कार्यक्रम का एक प्रायोजक नहीं मिल रहा था। हालांकि, बाद में टेलीविजन पर भी प्रायोजित कार्यक्रम प्रसारित होते रहे। उस समय कार्यक्रम के कंटेंट में प्रायोजक का काफी दखल होता था। कई कार्यक्रम तो ऐसे भी थे जिनका पूरा स्क्रिप्ट विज्ञापन एजेंसी वाले ही लिखते थे।

विज्ञापन के क्षेत्र में साठ के दशक में व्यापक बदलाव आया। रचनात्मकता पर जोर बढ़ने लगा। ऐसे विज्ञापन बनाए गए जो लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर सकें। लोगों को सोचने पर विवश करने वाले विज्ञापन उस दौर में बनाए गए। साठ के दशक में वोक्सवैगन कार के विज्ञापन से विज्ञापन की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव लाने का श्रेय बिल बर्नबैय को जाता है। दरअसल, उस दौर को अमेरिका के विज्ञापन इतिहास में रचनात्मक क्रांति का दौर कहा जाता है।

अस्सी और नब्बे के दशक में दुनिया सूचना क्रांति के दौर से गुजर रही थी। इसी दौरान केबल टेलीविजन का आगमन हुआ। इसका असर विज्ञापन के बाजार पर भी पड़ा। माध्यम के बढ़ जाने की वजह से प्रतिस्पर्धा बढ़ी और विज्ञापन के नए-नए तरीके ईजाद होने लगे। इन्हीं में से एक था म्यूजिक विडियो का चलन में आना। दरअसल, ये विज्ञापन होते हुए भी दर्शकों का मनोरंजन करते थे। इसलिए, यह काफी लोकप्रिय हो गया। इसी समय टेलीविजन चैनलों पर टाइम स्लाट खरीद कर विज्ञापन दिखाने का सिलसिला शुरू हुआ।

बाद में तो कई देशों में शापिंग नेटवर्क वालों ने तो बकायदा विज्ञापन चैनल ही खोल लिया। भारत में भी टाटा स्काई के डीटीएच पर ऐसा चैनल है जो सेवा से संबंधित जानकारियां ही देता रहता है। यह विज्ञापन का बढ़ता प्रभाव है कि कई उद्योगपति खुद टेलीविजन चैनल खोल रहे है। रिलायंस और विडियोकान द्वारा लाए जाने वाले समाचार चैनलों को भी इसी कवायद से जोड़ कर देखा जा रहा है।

टेलीविजन विज्ञापनों के परिदृश्य में भी व्यापक बदलाव हुए हैं। इस जनमाध्यम के जरिए लोगों को लुभाने की कोशिश जारी है। यहां रचनात्मकता पर अश्लीलता हावी है। उल्लेखनीय है कि पहला टेलीविजन विज्ञापन अमेरिका में पहली जुलाई 1941 को प्रसारित किया गया था। बीस सेकेंड के उस विज्ञापन के लिए बुलोवा वाच कंपनी ने डब्ल्युएनबीटी टीवी को नौ डालर का भुगतान किया था। इसे बेसबाल के चल रहे एक मैच के पहले दिखाया गया था। इस विज्ञापन में बुलोवा की घड़ी को अमेरिका के नक्शे पर रखा हुआ दिखाया गया। जिसके पीछे से वायस ओवर के जरिए कहा गया ‘अमेरिका बुलोवा के समय से चलता है।’ उस वक्त से अब तक टेलीविजन विज्ञापन काफी लोकप्रिय रहे हैं।

कुछ समय बाद राजनैतिक विज्ञापनों के लिए भी टेलीविजन का प्रयोग किया जाने लगा। भारत में इसकी शुरूआत दूरदर्शन पर पार्टी को समय आवंटित करने से हुई। यह विज्ञापन के बढ़ते असर का ही परिणाम है कि विज्ञापन विमर्श अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। विज्ञापन एजेंसियों के बड़े कारोबार को जानना-समझना अपने आप में विशेषज्ञता का एक क्षेत्र बन चुका है।

इस संदर्भ में प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री एडवर्ड चैंबरलिन ने 1933 में ही बाजार के सच को उजागर करती हुई महत्वपूर्ण व्याख्या की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ए थियरी आफ मोनोपोलिस्टिक कंपीटिशन’ में लिखा था, ”वह युग खत्म हो गया जब हर उत्पाद के ढेरों निर्माता होते थे। और उनके बीच घोर प्रतिद्वंद्विता होती थी। इसकी वजह से प्रत्येक उत्पाद अपनी गुणवत्ता को सुधारने के लिए सक्रिय होता था, ताकि वह ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित कर सके।” आज से सात दशक पहले की गई यह व्याख्या विज्ञापन के मौजूदा परिदृश्य पर बिलकुल सटीक बैठती है। आज गुणवत्ता की बजाए जोर किसी भी तरह से ग्राहक को उत्पाद के मायाजाल में फांसने का है। इसके लिए पहले पैकिंग को आकर्षक बनाया गया।

इसके बाद विज्ञापन के जरिए सपने दिखाए गए। इनके माध्यम से साख उत्पाद के प्रयोग को सामाजिक स्टेटस से जोड़ दिया गया। समाज में बहुतायत मध्यम वर्ग वालों की ही है। इसी वर्ग को लक्षित करके इनके मन में यह बात विज्ञापनों के सहारे बैठायी गयी कि उच्च वर्ग की जीवनशैली और उनके द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं को अपनाया जाए। इस मोहजाल में मध्यम वर्ग फंसता ही चला गया और विज्ञापनों की बहार आ गई आज विज्ञापन के जरिए बचपन को भंजाने की हरसंभव कोशिश की जा रही है।

पूंजीवाद की मार से बच्चे भी नहीं बच पाए हैं। विज्ञापनों में महिलाओं के बाद सर्वाधिक प्रयोग बच्चों का ही हो रहा है। इन्हें जान-बुझ कर लक्ष्य बनाया जा रहा है। इसके पीछे की वजहें साफ हैं। पहला तो यह कि इससे बाल मस्तिष्क पर आसानी से प्रभाव छोड़ना संभव हो पाता है।

दूसरी वजह यह है कि अगर बच्चे किसी खास ब्रांड के उत्पाद के उपभोक्ता बन जाएं तो वे उस ब्रांड के साथ लंबे समय तक जुड़े रह सकते हैं। कुछ विज्ञापन तो बच्चों के अंदर हीनभावना भी पैदा कर रहे हैं। बच्चों के मन में यह बात बैठाई जा रही है कि विज्ञापित वस्तु का प्रयोग करना ही आधुनिकता है। अगर वे उसका प्रयोग नहीं करेंगे तो पिछडे समझे जाएंगे। कुछ विज्ञापनों के जरिए बच्चों की मानसिकता को भी बड़ों के समान बनाने की कुचेष्टा की जा रही है। जान-बूझ कर बच्चों से जुड़े विज्ञापनों में सेक्सुअल पुट डाला जा रहा है।

यानी बचपन को छीने जाने की पूरी तैयारी हो गई है। ऐसा लगता है। आज हालत यह है कि बच्चे किसी उत्पाद के लिए नहीं बल्कि खास ब्रांड के उत्पाद के लिए अपने अभिभावकों से जिद्द कर रहे हैं। इस वजह से अभिभावकों को परेशानी उठानी पड़ रही है। यह विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव ही है कि बच्चों में विज्ञापनों में काम करने की ललक भी बढ़ती जा रही है। इसका नकारात्मक प्रभाव उनकी पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता है। आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कई अभिभावक भी अपने बच्चे को विज्ञापन फिल्मों में देखना चाह रहे हैं। इसके लिए वे बाकायदा बच्चों को अभिनय का प्रशिक्षण भी दिलवा रहे हैं। इस बुरे चलन से कम उम्र में ही बच्चों के मन में पैसे के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा हो रहा है। यह विज्ञापन का एक बड़ा दुष्परिणाम है।

आखिर में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि लाख खामियों के बावजूद विज्ञापन आज बाजार का अभिन्न अंग बन चुका है। इस विज्ञापन बाजार ने नए युग के नए नायकों का निर्माण किया है। साथ ही साथ नई पीढ़ी के आदर्श भी विज्ञापन ही तय कर रहे हैं। भूमि घोटाले में फंसे रहने के बावजूद अभिताभ बच्चन के विज्ञापन का भाव सबसे ज्यादा है, इस तथ्य से आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे।

विज्ञापनों की दुनिया सीधे तौर पर लोगों की पसंद से जुड़ी हुई है। यानी, कहा जा सकता है कि लोगों की सोच विज्ञापन तय करने लगे हैं। विज्ञापन के लिए यह सबसे बड़ी सफलता है। किंतु समाज के लिए यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

आइये जाने कमलेश्वर जी को !!

कमलेश्वर (6 जनवरी 1932-27 जनवरी 2007) हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। उन्होंने मुंबई में जो टीवी पत्रकारिता की, वो बेहद मायने रखती है। ‘कामगार विश्व’ नाम के कार्यक्रम में उन्होंने ग़रीबों, मज़दूरों की पीड़ा-उनकी दुनिया को अपनी आवाज दी।


कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी ज़िले में हुआ। उन्होंने 1954 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। `आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'छोटी सी बात', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। लोकप्रिय टीवी सीरियल 'चन्द्रकांता' के अलावा 'दर्पण' और 'एक कहानी' जैसे धारावाहिकों की पटकथा लिखने वाले भी कमलेश्वर ही थे। उन्होंने कई वृतचित्रों और कार्याक्रमों का निर्देशन भी किया।


1995 में कमलेश्वर को `पद्मभूषण' से नवाजा गया और 2003 में उन्हें 'कितने पाकिस्तान'(उपन्यास) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे `सारिका' `धर्मयुग', `जागरण' और `दैनिक भास्कर' जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। उन्होंने दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक जैसा महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाया। कमलेश्वर ने अपने 75 साल के जीवन में 12 उपन्यास, 17 कहानी संग्रह, और क़रीब 100 फ़िल्मों की पटकथाएँ लिखीं।


27 जनवरी 2007 को उनका निधन हो गया।

कृतियाँ
उपन्यास -

एक सड़क सत्तावन गलियाँ / कमलेश्वर
तीसरा आदमी / कमलेश्वर
डाक बंगला / कमलेश्वर
समुद्र में खोया हुआ आदमी / कमलेश्वर
काली आँधी / कमलेश्वर
आगामी अतीत / कमलेश्वर
सुबह...दोपहर...शाम / कमलेश्वर
रेगिस्तान / कमलेश्वर
लौटे हुए मुसाफ़िर / कमलेश्वर
वही बात / कमलेश्वर
एक और चंद्रकांता / कमलेश्वर
कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर
पटकथा एवं संवाद

कमलेश्वर ने 99 फ़िल्मों के संवाद, कहानी या पटकथा लेखन का काम किया। कुछ प्रसिद्ध फ़िल्मों के नाम हैं-

1. सौतन की बेटी(1989)-संवाद
2. लैला(1984)- संवाद, पटकथा
3. यह देश (1984) -संवाद
4. रंग बिरंगी(1983) -कहानी
5. सौतन(1983)- संवाद
6. साजन की सहेली(1981)- संवाद, पटकथा
7. राम बलराम (1980)- संवाद, पटकथा
8. मौसम(1975)- कहानी
9. आंधी (1975)- उपन्यास
संपादन

अपने जीवनकाल में अलग-अलग समय पर उन्होंने सात पत्रिकाओँ का संपादन किया -

विहान-पत्रिका (1954)
नई कहानियाँ-पत्रिका (1958-66)
सारिका-पत्रिका (1967-78)
कथायात्रा-पत्रिका (1978-79)
गंगा-पत्रिका(1984-88)
इंगित-पत्रिका (1961-68)
श्रीवर्षा-पत्रिका (1979-80)
अखबारों में भूमिका

वे हिन्दी दैनिक `दैनिक जागरण' में 1990 से 1992 तक तथा `दैनिक भास्कर' में १९९७ से लगातार स्तंभलेखन का काम करते रहे।'

कहानियाँ

कमलेश्वर ने तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनकी कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ हैं -

राजा निरबंसिया / कमलेश्वर
सांस का दरिया / कमलेश्वर
नीली झील / कमलेश्वर
तलाश / कमलेश्वर
बयान / कमलेश्वर
नागमणि / कमलेश्वर
अपना एकांत / कमलेश्वर
आसक्ति / कमलेश्वर
जिंदामुर्दे / कमलेश्वर
जॉर्ज पंचम की नाक / कमलेश्वर
मुर्दों की दुनिया / कमलेश्वर
कस्बे का आदमी / कमलेश्वर
स्मारक / कमलेश्वर
नाटक

उन्होंने तीन नाटक लिखे -

अधूरी आवाज / कमलेश्वर
रेत पर लिखे नाम / कमलेश्वर
हिंदोस्ता हमारा / कमलेश्वर

भारतीय फिल्म पटकथा

हर फिल्म की एक पटकथा होती है, इसे ही स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले भी कहते हैं। पटकथा में दृश्य, संवाद, परिवेश और शूटिंग के निर्देश होते हैं। शूटिंग आरंभ करने से पहले निर्देशक अपनी स्क्रिप्ट पूरी करता है। अगर वह स्वयं लेखक नहीं हो, तो किसी दूसरे लेखक की मदद से यह काम संपन्न करता है। भारतीय परिवेश में कहानी, पटकथा और संवाद से स्क्रिप्ट पूरी होती है। केवल भारतीय फिल्मों में ही संवाद लेखक की अलग कैटगरी होती है। यहां कहानी के मूलाधार पर पटकथा लिखी जाती है। कहानी को दृश्यों में बांटकर ऐसा क्रम दिया जाता है कि कहानी आगे बढ़ती दिखे और कोई व्यक्तिक्रम न पैदा हो। शूटिंग के लिए आवश्यक नहीं है कि उसी क्रम को बरकरार रखा जाए, लेकिन एडीटिंग टेबल पर स्क्रिप्ट के मुताबिक ही फिर से क्रम दिया जाता है। उसके बाद उसमें ध्वनि, संगीत आदि जोड़कर दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाया जाता है। पटकथा लेखन एक तरह से सृजनात्मक लेखन है, जो किसी भी फिल्म के लिए अति आवश्यक है। इस लेखन को साहित्य में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी धारणा है कि पटकथा साहित्य नहीं है। हिंदी फिल्मों के सौ सालों के इतिहास में कुछ ही फिल्मों की पटकथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो सकी है। गुलजार, राजेन्द्र सिंह बेदी और कमलेश्वर की फिल्मों की पटकथाएं एक समय न केवल प्रकाशित हुई, बल्कि बिकीं भी, लेकिन फिर भी उन्हें साहित्य का दर्जा हासिल नहीं हुआ! साहित्य के पंडितों के मुताबिक पटकथा शुद्ध शुद्ध रूप से व्यावसायिक लेखन है और किसी फिल्म के लिए ही उसे लेखक लिखते हैं, इसलिए उसमें साहित्य की मौलिकता, पवित्रता और सृजनात्मकता नहीं रहती। साहित्य की सभी विधाओं की तरह पटकथा लेखक की स्वाभाविक और नैसर्गिक अभिव्यक्ति नहीं है, इसलिए उसे साहित्य नहीं माना जा सकता। फिल्मों के लेखक और साहित्यकारों के बीच इस मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई है। दरअसल, फिल्मों के लेखक यह मानते हैं कि उनका लेखन किसी प्रकार से साहित्यिक लेखन से कम नहीं है। उसमें भी मौलिकता होती है और वह फिल्म के रूप में अपने दर्शकों को साहित्य के समान दृश्यात्मक आनंद देती है।

मशहूर फिल्म लेखक और शायर जावेद अख्तर कहते हैं कि पटकथा के प्रति प्रकाशकों और साहित्यकारों को अपना दुराग्रह छोड़ना चाहिए! उनकी राय में हिंदी में ऐसी कई फिल्में बनी हैं, जिनकी पटकथा में साहित्यिक संवेदनाएं हैं और इसीलिए उन्हें पुस्तक के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। वे अपने तर्क का विस्तार नाटकों तक करते हैं। वे कहते हैं कि नाटकों का मंचन होता है। उसमें भी अभिनेता, संगीत और अन्य कला माध्यमों का उपयोग होता है। वह भी दर्शकों के मनोरंजन के लिए ही रचा जाता है। वे पूछते हैं कि अगर नाटक साहित्यिक विधा है, तो फिर पटकथा से परहेज क्यों है? जावेद अख्तर चाहते हैं कि श्रेष्ठ हिंदी फिल्मों की पटकथा प्रकाशित होनी चाहिए। मराठी के नाटककार और होली और पार्टी जैसी फिल्मों के लेखक महेश एलकुंचवार स्पष्ट कहते हैं कि पटकथा को साहित्यिक दर्जा नहीं दिया जा सकता। पटकथा स्वयं पूर्ण रचना नहीं होती। प्रकाश और ध्वनि के साथ मिलकर वह फिल्म का रूप लेती है। अगर पटकथा प्रकाशित की जाएगी, तो उसमें सहायक साधनों को नहीं रखा जा सकेगा। प्रकाश और ध्वनि के अभाव में पटकथा का वही प्रभाव नहीं रहेगा, जो फिल्म देखते समय रहा होगा। साहित्य के पंडित और आलोचकों के पास और भी तर्क हैं। पटकथा के प्रभाव को भारतीय दर्शक अच्छी तरह समझते हैं। फिल्म प्रभावशाली माध्यम है और इसका असर व्यापक होता है। कई बार फिल्मों के रूप में आने के बाद साहित्यिक विधाएं ज्यादा लोकप्रिय हुई हैं। ताजा उदाहरण फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर है। इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए प्रकाशक ने उपन्यास का मूल नाम क्यू एंड ए बदल दिया है। साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जिन्हें फिल्मों की वजह से ज्यादा पाठक मिले। इस लिहाज से अगर पटकथा को स्वतंत्र कृति के रूप में प्रकाशित किया जाए, तो निश्चित ही पाठक फिल्म का साहित्यिक आनंद उठा सकेंगे। मुमकिन है, कुछ दशक बाद उन्हें साहित्य का दर्जा भी हासिल हो जाए!

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

हिंदू राजनीति का अभाव!!!!!!!!!!!!1

पश्चिम बंगाल के छोटे से शहर देगागा में इस वर्ष दुर्गा पूजा नहीं मनाई गई, क्योंकि तृणमूल काग्रेस से जुड़े एक दबंग मुस्लिम नेता ने हिंदू आबादी पर सुनियोजित हिंसा की। इस पर सत्ताधारी लोग और मीडिया, दोनों लगभग मौन रहे। स्थानीय हिंदुओं को भय है कि उन पर हमले करके आतंकित कर उन्हें वहां से खदेड़ भगाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। असम और बंगाल में कई स्थानों पर यह पहले ही हो चुका है, इसलिए इस जनसाख्यिकी आक्रमण को पहचानने में वे भूल नहीं कर सकते। वस्तुत: ऐसी घटनाओं पर राजनीतिक मौन ही इसके वास्तविक चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है।

क्या किसी शहर में मुस्लिमों द्वारा किसी बात पर विरोध-स्वरूप ईद न मनाना भारतीय मीडिया के लिए उपेक्षणीय घटना हो सकती थी। चुनी हुई चुप्पी और चुना हुआ शोर-शराबा अब तुरंत बता देता है कि किसी साप्रदायिक हिंसा का चरित्र क्या है। पीड़ित कौन है, उत्पीड़क कौन। जब भी हिंदू जनता हिंसा और अतिक्रमण का शिकार होती है, राजनीतिक वर्ग और अंग्रेजी मीडिया मानो किसी दुरभिसंधि के अंतर्गत मौन हो जाता है। यह आसानी से इसलिए संभव होता है, क्योंकि भारत में कोई संगठित हिंदू राजनीतिक समूह नहीं है। हिंदू भावनाएं, दुख या चाह को व्यक्त करने वाला कोई घोषित या अघोषित संगठन भी नहीं है।

कुछ लोग भाजपा को हिंदू राजनीति से जोड़ते हैं, किंतु इस पर हिंदुत्व थोपा हुआ है। स्वयं भाजपा ने कभी हिंदू चिंता को अपनी टेक घोषित नहीं किया। इसने पिछला लोकसभा चुनाव भी विकास और मजबूती के नारे पर ही लड़ा था। गुजरात, मध्य प्रदेश या बिहार में भी वह हिंदू चिंता की अभिव्यक्ति से बचती है। मुस्लिम संगठन ठीक उलटा करते हैं। इसलिए भाजपा पर हिंदू साप्रदायिक होने या हिंदुत्व से भटकने के दोनों आरोप गलत हैं, जो उसके विरोधी या समर्थक लगाते हैं। विरोधी इसलिए, क्योंकि किसी न किसी को हिंदू-साप्रदायिक कहना उनकी जरूरत है ताकि वे मुस्लिम वोट-बैंक के सामने अपना हाथ फैलाएं। समर्थक भाजपा पर भटकने का आरोप इसलिए लगाते हैं, क्योंकि हिंदू चिंता को उठाने वाला कोई दल न होने के कारण वे भाजपा पर ही अपनी आशाएं लगा बैठते हैं। भाजपा इन आशाओं का विरोध नहीं करती, पर उसने कभी इन आशाओं को पूरा करने का वचन भी नहीं दिया। राम मंदिर बनाने की बात या धारा 370 हटाने की आवश्यकता बताना-हिंदू राजनीति नहीं है। अयोध्या में ताला खुलवाकर पूजा की शुरुआत तो राजीव गांधी ने ही की थी। इसी प्रकार धारा 370 के अस्थायी होने की बात तो संविधान में काग्रेस ने ही लिखी थी।

अत: इक्का-दुक्का भाजपा नेताओं द्वारा कभी-कधार कुछ कहना हिंदू राजनीति नहीं है। यह कभी-कभार हिंदू भावनाओं को उभारती या उपयोग करती है, पर यह नीति भारत में प्रचलित हिंदू-विरोधी सेक्युलरवाद से पार नहीं पा सकती। उसी तरह वह हिंदुत्व भी अकर्मक है जिसमें खुल कर सामने आने का साहस नहीं, जिसमें हर हाल में सही बात कहने की दृढ़ता न हो, जो प्रबल विरोधियों के समक्ष सच कहने से कतराता हो, जिसके कार्यकर्ता पहले अपना निजी स्वार्थ साधने के लोभ में डूबे रहते है। वह भी व्यर्थ हिंदुत्व ही है जो केवल सत्ता पाने अथवा पहले सत्ता में आने के लिए हिंदू भावनाओं का उपयोग करने का प्रयास करता हो। यह सब छद्म हिंदुत्व है जो यहां प्रचलित सेक्युलरवाद से हारता रहा है, हारता रहेगा। उपर्युक्त भाव और रूप किसी दल या नेता की विशेषताएं नहीं हैं। यह विभिन्न संगठनों और विभिन्न नेताओं-कार्यकर्ताओं की विशेषताएं हैं। यह अपने स्वभाव से ही इतना दुर्बल है कि शिकायतें करने और दूसरों पर निर्भर रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए छद्म हिंदुत्व, शिकायती हिंदुत्व और हिंदू राजनीति के अभाव में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। अत: इस गंभीर सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि जिस तरह मुस्लिम राजनीति एक स्थापित शक्ति है, उसी तरह किसी हिंदू राजनीति का अस्तित्व ही नहीं है। हिंदू भावनाओं वाले कुछ नेता-कार्यकर्ता अनेक दलों में हैं, पर हिंदू भावना एक बात है और हिंदू राजनीति को स्वर देना बिलकुल दूसरी बात।

हिंदू राजनीति का अभाव!!!!!!!!!!!!1

पश्चिम बंगाल के छोटे से शहर देगागा में इस वर्ष दुर्गा पूजा नहीं मनाई गई, क्योंकि तृणमूल काग्रेस से जुड़े एक दबंग मुस्लिम नेता ने हिंदू आबादी पर सुनियोजित हिंसा की। इस पर सत्ताधारी लोग और मीडिया, दोनों लगभग मौन रहे। स्थानीय हिंदुओं को भय है कि उन पर हमले करके आतंकित कर उन्हें वहां से खदेड़ भगाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। असम और बंगाल में कई स्थानों पर यह पहले ही हो चुका है, इसलिए इस जनसाख्यिकी आक्रमण को पहचानने में वे भूल नहीं कर सकते। वस्तुत: ऐसी घटनाओं पर राजनीतिक मौन ही इसके वास्तविक चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है।

क्या किसी शहर में मुस्लिमों द्वारा किसी बात पर विरोध-स्वरूप ईद न मनाना भारतीय मीडिया के लिए उपेक्षणीय घटना हो सकती थी। चुनी हुई चुप्पी और चुना हुआ शोर-शराबा अब तुरंत बता देता है कि किसी साप्रदायिक हिंसा का चरित्र क्या है। पीड़ित कौन है, उत्पीड़क कौन। जब भी हिंदू जनता हिंसा और अतिक्रमण का शिकार होती है, राजनीतिक वर्ग और अंग्रेजी मीडिया मानो किसी दुरभिसंधि के अंतर्गत मौन हो जाता है। यह आसानी से इसलिए संभव होता है, क्योंकि भारत में कोई संगठित हिंदू राजनीतिक समूह नहीं है। हिंदू भावनाएं, दुख या चाह को व्यक्त करने वाला कोई घोषित या अघोषित संगठन भी नहीं है।

कुछ लोग भाजपा को हिंदू राजनीति से जोड़ते हैं, किंतु इस पर हिंदुत्व थोपा हुआ है। स्वयं भाजपा ने कभी हिंदू चिंता को अपनी टेक घोषित नहीं किया। इसने पिछला लोकसभा चुनाव भी विकास और मजबूती के नारे पर ही लड़ा था। गुजरात, मध्य प्रदेश या बिहार में भी वह हिंदू चिंता की अभिव्यक्ति से बचती है। मुस्लिम संगठन ठीक उलटा करते हैं। इसलिए भाजपा पर हिंदू साप्रदायिक होने या हिंदुत्व से भटकने के दोनों आरोप गलत हैं, जो उसके विरोधी या समर्थक लगाते हैं। विरोधी इसलिए, क्योंकि किसी न किसी को हिंदू-साप्रदायिक कहना उनकी जरूरत है ताकि वे मुस्लिम वोट-बैंक के सामने अपना हाथ फैलाएं। समर्थक भाजपा पर भटकने का आरोप इसलिए लगाते हैं, क्योंकि हिंदू चिंता को उठाने वाला कोई दल न होने के कारण वे भाजपा पर ही अपनी आशाएं लगा बैठते हैं। भाजपा इन आशाओं का विरोध नहीं करती, पर उसने कभी इन आशाओं को पूरा करने का वचन भी नहीं दिया। राम मंदिर बनाने की बात या धारा 370 हटाने की आवश्यकता बताना-हिंदू राजनीति नहीं है। अयोध्या में ताला खुलवाकर पूजा की शुरुआत तो राजीव गांधी ने ही की थी। इसी प्रकार धारा 370 के अस्थायी होने की बात तो संविधान में काग्रेस ने ही लिखी थी।

अत: इक्का-दुक्का भाजपा नेताओं द्वारा कभी-कधार कुछ कहना हिंदू राजनीति नहीं है। यह कभी-कभार हिंदू भावनाओं को उभारती या उपयोग करती है, पर यह नीति भारत में प्रचलित हिंदू-विरोधी सेक्युलरवाद से पार नहीं पा सकती। उसी तरह वह हिंदुत्व भी अकर्मक है जिसमें खुल कर सामने आने का साहस नहीं, जिसमें हर हाल में सही बात कहने की दृढ़ता न हो, जो प्रबल विरोधियों के समक्ष सच कहने से कतराता हो, जिसके कार्यकर्ता पहले अपना निजी स्वार्थ साधने के लोभ में डूबे रहते है। वह भी व्यर्थ हिंदुत्व ही है जो केवल सत्ता पाने अथवा पहले सत्ता में आने के लिए हिंदू भावनाओं का उपयोग करने का प्रयास करता हो। यह सब छद्म हिंदुत्व है जो यहां प्रचलित सेक्युलरवाद से हारता रहा है, हारता रहेगा। उपर्युक्त भाव और रूप किसी दल या नेता की विशेषताएं नहीं हैं। यह विभिन्न संगठनों और विभिन्न नेताओं-कार्यकर्ताओं की विशेषताएं हैं। यह अपने स्वभाव से ही इतना दुर्बल है कि शिकायतें करने और दूसरों पर निर्भर रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए छद्म हिंदुत्व, शिकायती हिंदुत्व और हिंदू राजनीति के अभाव में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। अत: इस गंभीर सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि जिस तरह मुस्लिम राजनीति एक स्थापित शक्ति है, उसी तरह किसी हिंदू राजनीति का अस्तित्व ही नहीं है। हिंदू भावनाओं वाले कुछ नेता-कार्यकर्ता अनेक दलों में हैं, पर हिंदू भावना एक बात है और हिंदू राजनीति को स्वर देना बिलकुल दूसरी बात।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

मुस्लिम -हिन्दू और भारत !!!!!!!!!!!

आज हमारे चारों ओर का माहौल कुछ ऐसा सुलगता हुआ सा प्रतीत होता है, जैसे हम फ़ूटे ज्वालामुखी के पिघले लावे के बीच से रास्ता बनाते हुए कहीं जा पा रहे हों । वृहत्तर भारत के कई खंड में विभाजित हो जाने और अलग-अलग टुकड़ों पर अपनी रोटियां अलग पकाकर खाने के बावज़ूद हमारे कलेज़े की आग कहीं से भी ठंडी होती प्रतीत नहीं होती । विश्व राजनीति, अर्थनीति और भौतिकवाद ने मानव समाज की सोच को इतने संकुचित दायरे में क़ैद कर दिया है, कि मनुष्य का अपना प्राकृतिक स्वभाव होता क्या है, इसको जानने के लिये भी वन्य पशुओं के स्वभाव का अध्ययन करना पड़ रहा है । बढ़ती जनसंख्या भी इसका कारण रही जिसने क्रमश: घर, समाज, प्रान्त और देशों तक में दीवारें खड़ी करने का एक कभी खत्म न होने वाला सिलसिला बना दिया । फ़िर भी हमारा भारत ही इससे अधिक आक्रांत रहा है, क्योंकि इतनी विशालता के बावज़ूद इसका एकीकृत ढांचा विदेशी ताक़तों के लिये परेशानी और ईर्ष्या का सबब रहा । पिछले चार-पांच सौ वर्षों में लगातार विदेशी आक्रमण झेलते इस भूभाग पर परिस्थितियों ने एक धर्म से कई धर्म, पंथ और मज़हबों में इसको विभक्त कर दिया, जिसका दंश झेलना हमारी बाध्यता बन चुकी है । कहीं कुछ तो है ही, जिसने इस भूभाग से लम्बे समय के बाद ही सही, घुसपैठियों की जड़ें जम चुकने के बावज़ूद उन्हें कालान्तर में हमारी ज़मीन छोड़ने पर मज़बूर किया । शायद इसी तासीर पर किसी शायर को कहना पड़ा कि, ‘कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा’।
अब बात करें हिन्दू-मुसलमान की । क्योंकि कब-कब क्या-क्या हुआ, कब अफ़गानिस्तान वाला भूभाग अलग हो गया, फ़िर कब बर्मा (आज का म्यांमार) हमारा नहीं रहा, और फ़िर उसी प्रकार पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान और गुलाम कश्मीर से हम कब हाथ धो बैठे, यह सबकुछ कुछ पुराने, और कुछ नए इतिहास का विषय है, जिसपर चर्चा करना इस लेख का विषय नहीं है । किसी ब्लाँग में इतिहास-भूगोल की चर्चा हमेशा उबाऊ ही होती है । हमें बात करनी है समाज में निरंतर बढ़ती जा रही उस अ-सहिष्णुता की भावनाओं की, जो हमें निरंतर किसी विदेशी दार्शनिक की उस भविष्यवाणी को चरितार्थ होने की ओर ठेलती हुई सी प्रतीत हो रही हैं, जिसमें उसने एक-दो दशक में ही भारत के कम से कम बीस टुकड़े होने की कल्पना की थी । आज पूर्वोत्तर से लेकर कश्मीर तक अलगाववाद की भावना जिस तेज़ी के साथ जोर पकड़ती जा रही है, उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं, कि देर-सवेर कहीं हमें इन तत्वों के आगे घुटने तो नहीं टेक देने पड़ेंगे? उसपर कोढ़ में खाज की तरह इस्लामिक और भगवा आतंकवाद का नारा एक अलग प्रकार के सिरदर्द का कारण बनता जा रहा है । हिन्दू-मुस्लिम दोनों पक्ष के वे ढेर सारे लोग, जिसमें बुद्धिजीवी और आमजन दोनों प्रकार के लोग और ज़मातें हैं, जो कभी अ-सहिष्णुता और कट्टरवाद को कुछ सिरफ़िरे लोगों की सोच होने की दलीलें दिया करते थे, उनके विगत कुछ वर्षों में बदलते तेवर देखकर हैरानी होती है । कट्टरवाद अब कुछ गिनती के हिन्दू-मुस्लिम संगठनों की सीमा से बाहर होकर सड़कों पर आता जा रहा है । समाज पहले भी धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर दो खेमों में बंटा हुआ था, परन्तु एक अव्यक्त सी मर्यादा दोनों को कहीं न कहीं जोड़ती थी । उस मर्यादा की दीवारें तेज़ी से ढहती जा रही हैं, यह चिन्ता का विषय है । जहां जिसकी आबादी अधिक है, वहां स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अल्प-संख्यक पर भारी पड़ती है, यह एक स्वाभाविक मनोविज्ञान है । हर ऐसी जगह पर अल्पसंख्यक आबादी को कुछ समझौते अपनी स्वच्छन्दता के साथ करते हुए बहुसंख्यक समाज के साथ एडजस्ट करना पड़ता है, ऐसा शुरू से ही होता आया है । वोट की राजनीति अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से समाज को आपस में लड़ाते आई है ।
परन्तु आज की असहिष्णुता के तेवर घातक इसलिये हैं, क्योंकि इसका अंजाम घातक है । शायद बहुसंख्यक समाज इस खतरे से कहीं न कहीं जानबूझकर आंख चुराता हुआ सा प्रतीत हो रहा है । कश्मीर के मुसलमान शुरू से ही भारत के अन्य मुसलमानों से अलग श्रेणी के रहे, क्योंकि इस श्रेणी को हमने ही गढ़ा, और उसे परवान चढ़ाया । आर्थिक पैकेज दे-देकर हमने वहां के मुसलमानों को काहिल, मुफ़्तखोर, मुंहज़ोर और बिगड़ैल बना दिया, जैसे किसी रईसज़ादे के बच्चे होते हैं । ऐसे विधान बनाकर दे दिये कि इधर का कोई वहां जाकर न तो बस सकता है, न ही कोई धंधा रोज़गार जमा सकता है । लिहाज़ा वहां के मुसलमान पूरी तरह अपनी मर्ज़ी के मालिक और पाकिस्तान से रोटी-बेटी का रिश्ता होने के कारण उसके क़रीबी बनते चले गए । इसके विपरीत इधर के मुसलमानों के लिये हमने कुछ भी खास नहीं किया ताक़ि वह भी मुख्यधारा के साथ मिलकर अपने को विकसित कर सकें । कुछ गिने-चुने लोगों का विकास हुआ, और आज वही लोग उस समाज के अगुआ बने हुए हैं । सवाल यह है कि मुसलमान के नाम पर यदि हम उन्हें भी कश्मीरी मुसलमान और बाहरी इस्लामिक कट्टरवादियों आतंकवादियों की श्रेणी में रखकर देखते हैं, तो फ़िर वहीं यह सवाल भी पैदा होता है कि आखिर हम चाहते क्या हैं? मुसलमान क़ौम से छुटकारा? कैसे? उनसे आर-पार की लड़ाई लड़ के? फ़िर क्या होगा? आज जो मुस्लिम आबादी भारत में है, सबको पता है कि पाकिस्तान की पूरी आबादी से भी अधिक है । तब फ़िर अपनी ज़मीन के और टुकड़े करने के लिये भी हमें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिये । क्योंकि हिन्दू मुस्लिम से अलग हो जायं, या मुस्लिम हिन्दू से, बात बिल्कुल बराबर है , कोई फ़र्क़ नहीं । यदि मारकर किसी सम्प्रदाय को समाप्त किया जा सकता, तो पहला मौक़ा आक्रमणकारी मुग़लों के हाथ आया था । क्यों नहीं वे हिन्दुओं का खात्मा कर पूरे भारत को मुस्लिम आबादी में तब्दील कर पाए? मार-काट मचाकर भी जब समाप्त नहीं कर पाए, तो धर्मांतरण का सहारा लेना पड़ा, फ़िर भी शत-प्रतिशत हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बना पाए । आज वही आबादी हिन्दू-मुस्लिम दो खेमों में विभक्त है । जब मुसलमान हिन्दुओं को समाप्त नहीं कर पाए, तो हिन्दू भी कभी मुसलमानों को समाप्त नहीं कर सकते । एक ही विकल्प निकलेगा इस लड़ाई का, कि ज़मीन के टुकड़े कीजिये, तथा एक और देश की सीमा तय कर लीजिये । इस विकल्प से भी बात बनती कहां है? पाकिस्तान बनने के बाद भी तमाम मुसलमानों ने अपनी धरती, जहां उनके पुरखे पैदा हुए थे, वहीं मर जाना पसन्द किया, उधर गए नहीं । उधर के कुछ हिन्दुओं ने भी ऐसा ही किया था, जो आज वहां अल्पसंख्यक हैं ।
ले-देकर बात वहीं अटकती है कि इस झगड़े को बढ़ावा देकर, दोनों में से किसी भी कौम द्वारा अपने लोगों में कट्टरवादिता को प्रश्रय देकर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला । कुछ लोगों की दुकानदारी ज़रूर चमकती है इन भावनाओं को भड़काकर, जैसे नेता और कुछ तथाकथित हिन्दूवादी खबरची और प्रतिक्रियावादी । जिनको विधानसभाओं और लोकसभा या फ़िर अपनी स्थानीय निकाय की सीट पक्की करनी होती है, या फ़िर तीखे तेवरों वाली पत्रकारिता में अपनी विशेष पहचान स्थापित करनी होती है, या फ़िर थोडी दूरी पर अपने गुट का धार्मिक या राजनीतिक नेता बनने की सम्भावना दिखती है । मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि हिन्दू हों या मुसलमान, इस विचारधारा के लोग ही समाज के असली दुश्मन और अलगाववाद को प्रश्रय देने वाले लोग होते हैं । हम दूसरे किसी भी देश से अपनी तुलना करने की स्थिति में कभी नहीं हो पाएंगे, क्योंकि किसी भी देश की आबादी जाति-धर्म और पंथ की इतनी विभिन्नताओं के साथ आबाद नहीं है । हमारे लिये एक और एकमात्र रास्ता है कि आज विज्ञान और टेक्नाँलाँजी के ज़माने में विकास के सारे सुख प्राप्त करने हेतु, सभी जाति पंथ और मजहब एक होकर आतंकवाद, अलगाववाद और वह कोई भी ताक़त जो हमारे विकास का रोड़ा बनती हो, उसको एकजुट होकर पूरी ताक़त से कुचल दें । इसके लिये हमें सम्प्रदायवाद की संकीर्णता से ऊपर उठना ही होगा, क्योंकि और कोई चारा नहीं है । हिन्दू हो या मुस्लिम, कोई इस देश के टुकड़े होता देखना कभी पसन्द नहीं करेगा, सिवाय विदेशी खर्चों पर पल रहे भाड़े के टट्टुओं के । इनकी तो न कोई जाति है, न मजहब, न ही आमजन के जीने मरने से कोई वास्ता । इनके दमन के लिये हम सब का कर्त्तव्य बनता है कि अपने जवानों, चाहे किसी भी फ़ोर्स से सम्बन्धित हों, उनको नैतिक समर्थन देने के लिये हमेशा आगे रहें । नेताओं की बातों को तौलें । यदि वे देश और समाज के हित में काम करते हैं, तो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उन्हें समर्थन दें । यदि उनकी किसी गतिविधि में उनका दलगत या व्यक्तिगत स्वार्थ दिखता हो, तो उन्हें कभी बढ़ावा न दें । हम सुधरेंगे, तो समाज और देश दोनों स्वत: सुधर जाएंगे ।

रविवार, 26 सितंबर 2010

भगवान श्रीराम को फिर से वनवास????- डॉ0 प्रवीण तोगड़िया


भारत ही नहीं वरन् विश्व का हिन्दू अयोध्या में भगवान् राम की जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर की सदियों से राह देख रहा है ! भगवान् राम तो लोभ-मोह से परे एक बार वनवास में चले गए थे – तब पिता का सम्मान रखना था उन्हें ! अब फिर से भगवान् राम की जन्मभूमि पर के मंदिर को यानी कि भगवान् राम को ही फिर से वनवास भेजा गया ! 450 वर्ष का अन्याय 4,00,000 हिन्दुओं का बलिदान, कोठारी बन्धुओं के वृद्ध माता-पिता के आंसुओं में से भी धधकती हुई राम मंदिर की आशा, जिन लोगों का राम जन्मभूमि पर इंच भर भी हक नहीं, ऐसे-ऐसे लोगों के साथ हिन्दुओं के सम्मान्य साधु-संतों को बिठा-बिठाकर किए गए समझौते के अनेकानेक प्रयास…….यह सब कुछ सरयू के जल में बह गया क्या ? तब भगवान् राम ने पिता के सम्मान के लिए वनवास भी झेला।

अब हम भी भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च न्यायपालिका के सम्मान के लिए यह दुःख भी झेलेंगे कि अब फिर से भगवान् राम वनवास भेजे गए ! उनके अपने जन्मस्थान पर उनका अपना एक मंदिर हो – मंदिर भगवान् का घर माना जाता है – इसके लिए भगवान् को दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर करने वालों ने यानी कि बार-बार निरर्थक अर्जियां प्रस्तुत कर देश और हिन्दुओं का अपमान करनेवालों ने तो न्यायपालिका का सम्मान नहीं किया ! लेकिन इस देश का हिन्दू आज दुःखी है ! किसी भी अन्य देश में 85 प्रतिशत से अधिक संख्या में शांति से रहने वालों पर 15 प्रतिशत द्वारा बड़े-बड़े अन्याय नहीं किए जाते – लेकिन भारत में हिन्दू भी अब भगवान् राम के साथ वनवास भेजे गए ! भगवान् राम को और करोड़ों हिन्दुओं की आशा जगी हुई थी कि इतने वर्षों के न्यायालयीन प्रयासों के बाद अब भगवान् राम को उनकी अपनी जन्मभूमि पर एक मंदिर मिलेगा ! लेकिन नहीं !

यह देरी करने में याचिकाकर्ता का क्या मतलब और क्या दुर्हेतु है, यह देश के हिन्दू नहीं समझते ऐसा भी नहीं है, लेकिन भगवान् राम तो अवश्य देख और समझ रहे होंगे कि उनको उनके मंदिर से कौन, क्यों, कब तक वंचित रख रहे हैं !

अयोध्या की परिक्रमा मार्ग में 400 मुस्लिम परिवारों को गरीब आवास योजना में अभी-अभी घर दिए गए – लेकिन अयोध्या में भगवान् राम को उनकी अपनी जन्मभूमि पर मंदिर के लिए कितनी राह देखनी होगी ? और तो और जब दूसरे दिन इसका निर्णय होनेवाला हो उस दिन फिर से भगवान् राम वनवास में ? 1 अक्टूबर को प्रयाग (जिसे कुछ लोग अल्लाहाबाद कहते हैं) के न्यायालय के एक न्यायाधीश सेवानिवृत्त हो रहे हैं – इसका अर्थ यह है कि फिर से नए सिरे से ट्रायल चलेगी ? फिर अब तक इतने वर्षों से जो सुनवाइयां हुईं, जो निर्णय लिखा भी गया होगा, उसका क्या ? यह देरी करने में याचिकाकर्ता का क्या मतलब और क्या दुर्हेतु है, यह देश के हिन्दू नहीं समझते ऐसा भी नहीं है, लेकिन भगवान् राम तो अवश्य देख और समझ रहे होंगे कि उनको उनके मंदिर से कौन, क्यों, कब तक वंचित रख रहे हैं ! समझौते का बुरका पहनाकर हिन्दुओं को जलील करने की चाल आज तक बहुत चली गयी-न्यायालयों का सम्मान करनेवाले हिन्दू सब दुःख सहते रहेंगे – लेकिन कब तक भगवान् राम अपने मंदिर से वंचित रखे जायेंगे ? क्यों ? इतनी हताशा हिन्दुओं में निर्माण हो, यह किस का प्रयास चल रहा है ?

सेकुलर दिखने की यह फैशन भारत में कैंसर की तरह फैली है – जिनके मन में आज लड्डू फूट रहे होंगे कि वाह-वाह ! देखो हिन्दुओं के राम का मंदिर नहीं बन रहा है ना – वे यह अच्छी तरह समझ लें कि हिन्दू धर्म ने भगवान् राम की न्यायप्रियता देखी है और महाभारत के काल में शिशुपाल और भगवान् श्रीकृष्ण की कहानी भी देखी है ! जो यह सोचकर आज उत्सव मना रहे होंगे कि अब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे, फिर नयी बेंच बनेगी, फिर नए सिरे से सुनवाई होगी और भगवान् राम को मंदिर कभी भी नहीं मिलेगा – ऐसे लोग यह भी समझ लें कि भारत का हिन्दू अब न्यायालयों की परम्परागत देरियों से उकता गया है, दुःखी है, आहत है ! हमारे जैसे लोग संपूर्ण देश में, समाज के हर वर्ग में प्रवास करते रहते हैं – हर वर्ग के हर उम्र के हिन्दुओं से मांग आ रही है कि अब बस ! यदि शाहबानो केस में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बावजूद भारत की संसद अलग कानून बना सकती है, तो भगवान् राम के मंदिर के लिए क्यों नहीं ? क्यों भारत की संसद भगवान् राम को भावी जन्मभूमि पर मंदिर के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर रही है ? भारत की संसद यह भी समझे कि भारत का हिन्दू 6 दशकों से स्वतन्त्र भारत में न्याय की राह देख रहा था – यह न्याय अपने लिए हिन्दू नहीं मांग रहे हैं !

भगवान् राम की अपनी जन्मभूमि पर उनका अपना मंदिर बने, जो पहले से ही था, इसके लिए हिन्दू तरस रहा था – अब हिन्दुओं को और ना तरसाओ, यही मांग भारत का हिन्दू भारत की संसद से कर रहा है ! बहुत देख ली न्यायालयीन प्रक्रियाओं की देरी, बहुत देखी ली झूठ-मूठ की याचिकाएं और बहुत देख लिए राजनीति से प्रेरित समझौते के खोखले प्रयास ! विदेशी बाबर के ढांचे को सम्मान देने वाले सेकुलर भी भारत ने बहुत देख लिए, अब बस ! बस हुआ भगवान् राम का कलियुगी वनवास ! नहीं राह देखनी है हिन्दुओं को न्यायालयीन देरी की – हिन्दू न्यायालयों का सम्मान करते हैं, करते रहेंगे लेकिन बस ! यह मसला भारत की अस्मिता का मसला है।

अब भारत की संसद भगवान् राम का मंदिर बनाने का कानून भगवान् सोमनाथ की तर्ज पर बनाए, यही एक तात्कालिक मांग है ! और सभी राजकीय पक्ष इसमें एक होकर हिन्दुओं का श्रद्धा स्थान और भारत का सम्मान ऐसे भगवान् राम के मंदिर के लिए कानून बनाए और वह भी अब बिना देरी के ! भारत के हिन्दुओं के धर्मसंयम की और परीक्षा अब ना ले कोई, यही भगवान् राम से प्रार्थना है !

डरी हुई लड़कियां !!!!!!!!!!!!!!

यह वाकई चिंता की बात है कि देश के महानगरों और बड़े शहरों की 77 फीसदी लड़कियों को छेड़खानी का डर सताता
रहता है। गैर सरकारी संगठन 'प्लान इंडिया' के एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है। इस सर्वे के मुताबिक 69 प्रतिशत लड़कियां शहरों को अपने लिए सुरक्षित नहीं मानतीं। यह राय हर वर्ग की लड़कियों की है, चाहे वह झुग्गी- झोपड़ी में रहती हों, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ती हों या नौकरीपेशा हों।

निश्चय ही यह उन शहरों की कानून-व्यवस्था और सामाजिक वातावरण पर एक कड़ी टिप्पणी है। एक आधुनिक समाज की पहचान इस बात से भी होती है कि वहां महिलाएं अपने को कितना सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करती हैं। इस नजरिए से देखें तो हमारे शहर अब भी आधुनिक मूल्यों से काफी दूर नजर आते हैं। वहां छेड़खानी और यौन अपराधों का होना इस बात का संकेत है कि वहां के समाज में स्त्री-पुरुष संबंध में सहजता अभी नहीं आई है। सामंती समाज में स्त्री-पुरुष का रिश्ता गैर बराबरी का रहा है। इस कारण उनमें आपसी संवाद की गुंजाइश भी बेहद कम रही है। लेकिन ज्यों-ज्यों समाज बदला, स्त्री को हर स्तर पर आगे बढ़ने के मौके मिले। धीरे-धीरे उनके प्रति नजरिए में तब्दीली आई। और इस तरह स्त्री-पुरुष संबंध का तानाबाना भी बहुत कुछ बदला। दोनों का अपरिचय काफी हद तक खत्म हुआ। गांवों-कस्बों की तुलना में शहरों-महानगरों में स्त्री को ज्यादा आजादी मिली, शिक्षा और रोजी-रोजगार के अवसर ज्यादा मिले। लेकिन पुरुष वर्ग की मानसिकता में सामंती मूल्यों के अवशेष अब भी बचे हुए हैं। यौन अपराध कहीं न कहीं उसी की अभिव्यक्ति हैं।

असल में सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी हर जगह एक सी नहीं रही है। उनमें काफी असंतुलन है। यही वजह है दिल्ली जैसे महानगर में एक तरफ तो लिव इन रिलेशन को भी स्वीकार किया जा रहा है, दूसरी ओर ऑनर किलिंग की घटनाएं भी घट रही हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि पुलिस-प्रशासन में भी पुरुषवाद हावी है। महिलाओं के साथ होने वाले किसी भी अपराध को आमतौर पर पुलिस गंभीरता से नहीं लेती या बेहद ढीले-ढाले ढंग से कार्रवाई करती है। इस वजह से यौन अपराधों में सजा दिए जाने की दर बेहद कम है। पुलिस का यह रवैया शरारती तत्वों के हौसले बढ़ाता है। महिलाएं भी यथासंभव सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त करके चलती हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि आवाज उठाने से वे मुसीबत में पड़ जाएंगी। सर्वे में 40 फीसदी लड़कियों ने कहा है कि वे अपने साथ छेड़छाड़ को नजरअंदाज करती हैं। महिलाओं के सशक्तीकरण की आज खूब बातें की जा रही हैं। पर जब वे बेखौफ होकर सड़क पर चल भी नहीं सकतीं तो उनके एम्पॉवरमेंट का क्या मतलब है।

आखिर कब तक टलेगा फैसला !!!!!!!!

आप गौर कीजिए, अयोध्या मामले पर फैसला आने के पहले किस तरह कुछ शहरों में चौराहों पर आपसी सदभावना के लिए
फूल बांटे जा रहे थे। आप पिछले दिनों आने वाले एसएमएसों की भाषा में शांति की चाहत देखिए। हालांकि अंतहीन इंतजार के बाद अयोध्या पर कोई फैसला आ जाने की उम्मीद एक बार फिर अधर में अटक गई है। फैसले की घोषणा के साथ कानून-व्यवस्था की कुछ चिंताएं जुड़ी थीं, पर कहीं न कहीं इसमें यह राहत भी शामिल थी कि अंतत: यह किस्सा खत्म होने की ओर तो बढ़ा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद मामला और लंबा खिंचने के आसार बनने लगे हैं।

एक बात बिल्कुल साफ है कि अब से बीसेक साल पहले, यानी 1989 से 1992 के बीच मंदिर-मस्जिद विवाद को लेकर जैसा तनाव पूरे देश में दिखाई पड़ रहा था, उसकी छाया भी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। इस बीच जन्मी और पली-बढ़ी भारत की नई पीढ़ी का जीवन, उसके सपने और उसकी परेशानियां कुछ और हैं। उस सामाजिक ठहराव को वह बहुत पीछे छोड़ आई है, जिससे ठलुआ किस्म के ढेरों निरर्थक विवाद इस देश में पैदा होते आए हैं। उसके मन में आस्था के लिए कुछ स्पेस जरूर है, लेकिन आस्था के नाम पर मार-काट उसके अजेंडा में दूर-दूर तक नहीं है। रहा सवाल पुरानी पीढ़ी का तो इन दो दशकों में उसने भी अपने सारे हाथ आजमा कर देख लिए हैं। उसे पता है कि अयोध्या विवाद एक राजनीतिक मामला है और जिन लोगों की रोजी-रोटी इससे चलती है वे इसे भुनाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

इस सामाजिक मोहभंग को देखते हुए ही मंदिर या मस्जिद के लिए अपना जीवन होम कर देने की डींगें हांकने वाले लोग भी इस मुद्दे पर पहले की तरह आक्रामक होने से बच रहे हैं। इस माहौल में अच्छा यही होगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट अपना फैसला सुनाकर झंझट खत्म करे। इसके बजाय फैसला टालने या मुकदमा और लंबा खिंचने से समाज में उन लोगों का पक्ष मजबूत होगा, जो आस्था को आधार बनाकर अदालत का फैसला न मानने पर अड़े हुए हैं। खतरा यह भी है कि 60 साल पुराने मुकदमे के फैसले की घोषणा खुद सुप्रीम कोर्ट द्वारा टाल दिए जाने से कहीं हमारी न्यायपालिका के औचित्य पर ही सवाल न खड़ा होने लगे।
from-nbt

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पेट के बाद शिक्षा !

इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव विकास की कहानी ज्ञान की लेखनी से ही लिखी गई है। आज प्रगति के शिखर को स्पर्श करने वाला मानव, शिक्षा के विविध आयामों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षी परिकल्पनाओं को साकार करने में सक्षम है। तथापि यह भी एक कटु सत्य है कि बच्चों की पारिवारिक परिस्थितियों उनकी शिक्षा में बाधा भी उत्पन्न कर करती है।
परिवार भी सामाजिक संरचना का हिस्सा है। फलतः समाज में होने वाले छोटे-बड़े परिवर्तनों से परिवार भी प्रभावित होते हैं। परिवार यदि सामाजिक ढाँचे का निर्माण करते हैं, तो दूसरी ओर समाज का दायित्व भी इन परिवारों के प्रति पूर्णरूपेण बनता है। वर्तमान समय में हमारा समाज स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित दिखाई देता है। प्रथम- धनी वर्ग, द्वितीय- मध्यम वर्ग, तृतीय- निर्धन वर्ग। कुछ ऐसा ही विभाजन पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर शिक्षा क्षेत्र में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। अंग्रेजी स्कूलों तक उन्ही की पहुँच हो पाती है जो आर्थिक आधार पर खरे उतरते हैं। मोटी आमदनी उनके बच्चों की राह आसान कर देती है। वे अपने बच्चों के लिये तत्परता से कार्य करते हैं। उनकी सजगता उनके बच्चों के सुनहरे भविष्य का निर्माण करती है। इसमें कुछ अनुचित भी नही है।

मेहनत-मजदूरी या फिर दैनिक वेतन पर गुजर-बसर करने वाले अधिसंख्य निर्धन तबके के लिये तो अंग्रेजी स्कूल एक सपना और सरकारी स्कूल एक उलझन साबित होती हैं। ये अभिभावक भी जो बीज परिवार ने अतीत में बोया था, वर्तमान में उसी को काट रहे हैं। क्या करेंगे बच्चों को पढ़ा-लिखा कर ? अपना कामधंधा ही तो आगे चलाना है।……मध्यम वर्ग के परिवार बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं। किंतु यहाँ भी बेटा-बेटी का भेदभाव दिखाई देता है। बेटे को अच्छी शिक्षा देंगे तो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। लड़की तो पराया धन है। उस पर धन खर्च करने से क्या लाभ ? ऊपर से ब्याह भी करना है। थोड़ा बहुत पढ़ ले वही बहुत है। इस पारिवारिक मानसिकता के चलते ही बालिकाओं की शिक्षा बाधित हो रही है।
भले ही शिक्षा का मार्ग पेट भर भोजन के मार्ग से ही क्यों न जाता हो, किंतु यह सत्य है कि मध्यान्ह भोजन व्यवस्था ने बच्चों को स्कूल तक पहुँचाया है। अशिक्षित माता-पिता बच्चों को पढ़ने विद्यालय भेजते तो हैं, किंतु बच्चों की प्रगति के प्रति उदासीन ही रहते हैं। शिक्षा के महत्व को अधिक न समझ पाने के कारण वे शिक्षा को बच्चों के भविष्य से जोड़ कर नहीं देख पाते हैं। विद्यालयों में बच्चों की आये दिन अनुपस्थिति इसी बात की ओर संकेत करती है। घरेलू कार्यों के लिए उन्हें घर में रोक लिया जाता है या फिर पूरी तरह से उनकी शिक्षा रोक दी जाती है। यही कारण है कि प्रति वर्ष विद्यालय छोड़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
कई परिवार ऐसे हैं जहाँ आर्थिक तंगी के चलते घमासान मचा रहता है। माता-पिता का अलगाव, उनमें किसी एक का जीवित न रहना, घरेलू कलह आदि अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करता बचपन वेदना के उस के उस अंधे कूप में जा गिरता है, जहाँ से निकलने की छटपटाहट तो सुनी जा सकती है किंतु समाधान शून्य में कहीं खो जाता है। कुहनी से फटी बनियान, बेतरतीब बाल, सूनी आँखें, रूखे चेहरे भविष्य के प्रति शून्य भाव किसी के भी मन को विचलित कर देगा। मन में प्रश्न उठने लगते हैं, क्या यही हैं हमारे देश का भविष्य ?
मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित निर्धन परिवार में आँखें खोलने वाले ये बच्चे करें भी तो क्या ? सामाजिक न्याय-अन्याय की भाषा इन्हें नहीं आती। इन्हें तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें सुनाने का मन है, लेकिन बाल सुलभ इन बातों को सुनने का समय किसके पास है ? वास्तविक धरातल का कठोर यथार्थ उन्हें किसी बात की अनुमति नहीं देता। उनका निरर्थक पड़ा बस्ता दूसरे दिन की प्रातः तक उसी प्रकार पड़ा रहता है। जीवन की समस्याओं में उलझे उनके अभिभावकों को भी उनका यह बस्ता बोझ ही लगने लगता है।

मदिरापान कर जब उनका पिता उन्हें पीटता है, गालियाँ देता है, उनका बस्ता फेंक देता है या उन्हें घर से बाहर कर देता है तब वे क्या करें ? कैसे कक्षा में दिया गया कार्य करें ? स्कूल जा पाएँगे या नहीं ? यह मानसिक एवं शारीरिक चोट किस अनहोनी की ओर संकेत कर रही है ?
अपवादस्वरूप कई अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिखर तक पहुँचें। किंतु उनके सपने तब चूर-चूर हो जाते हैं, जब हजारों-लाखों की बात होती है। थक हार कर इन मेधावी निर्धन बच्चों की आशा निराशा में परिवर्तित हो जाती है। सरकारी प्रयास कितने सार्थक एवं न्यायपूर्ण क्यों न हों, पारिवारिक परिस्थितियाँ इन पर भारी पड़ती रही हैं। शिक्षा को गंभीरता से न लेना, शिक्षा के महत्व को न समझ पाना, दिन भर की परेशानी से बचने के लिए बच्चों को स्कूल भेजना, छात्रवृत्ति हेतु उत्साह दिखाना, उस राशि का प्रयोग बच्चों के लिए नहीं घरेलू कार्यों के लिए करना आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूँढना शेष है।
पारिवारिक परिस्थितियाँ धनी वर्ग के बच्चों के लिए भी कभी-कभी बाधा बनकर खड़ी हो जाती हैं। छोटे-छोटे बच्चों को संपत्ति की चमक चकाचौंध कर जाती है। भले-बुरे का ज्ञान मिट जाता है और वे शिक्षा से विमुख होकर कुमार्गी बन जाते हैं। अभिभावकों को तब समझ आती है जब उनके बच्चों के भविष्य का मार्ग पूरी तरह बंद हो चुका होता है। पाश्चात्य सभ्यता का विपरीत असर कई परिवारों में देखने को मिलता है। बच्चों की पढ़ाई के समय परिवार के सदस्य दूरदर्शन पर अपने मनपसन्द कार्यक्रम देखने लगते हैं। घर का वातावरण सिनेमा हॉल में बदल जाता है। बच्चों का भविष्य, उनकी प्रगति सबकुछ शोरगुल में डूब जाता है।
ग्रामीण परिवारों में शिक्षा वहाँ की मान्यताओं, भौगोलिक परिस्थितियों तथा कृषि कार्यों की आवश्यकताओं के आधार पर निर्धारित होती हैं। घर में कार्य की अधिकता के आधार पर बच्चों का स्कूल न जाना स्वतः ही तय हो जाया करता है। वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों में शिक्षा के प्रति उत्साह देखा जा सकता है, तथापि शिक्षा सहमति-असहमति के मध्य देखी जा सकती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जैसी पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं उसी के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है। जटिल पारिवारिक परिस्थितियाँ श्क्षिा के मार्ग को बाधित करती हैं और अनुकूल पारिवारिक परिस्थितियाँ शिक्षा के मार्ग को सुगम बना देती हैं। किसी भी परिस्थिति में निर्धन वर्ग को बहुत कुछ सहना पड़ता है।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

विज्ञापन

विज्ञापन विक्रय कला का एक नियंत्रित जनसंचार माध्यम है जिसके द्वारा उपभोक्ता को दृश्य एवं श्रव्य सूचना इस उद्देश्य से प्रदान की जाती है कि वह विज्ञापनकर्ता की इच्छा से विचार सहमति, कार्य अथवा व्यवहार करने लगे। औद्योगिकीकरण आज विकास का पर्याय बन गया है।


विज्ञापन लेखन क्या होता है?

अंग्रेजी भाषा के शब्द एडवरटाइजिंग की उत्पत्ति लैटिन के ‘Advertere’ शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘मोड़ने’ (to turn is) से होता है। विज्ञापन का अर्थ होता है किसी वस्तु या सेवाओं के बारे रचनात्मक और आकर्षक ढंग से विज्ञापन लिखना।

  • विज्ञापन हमारे आस पास उपस्थित है, जिससे हमें समस्त वस्तुओं की जानकारी उपलब्ध हो पाती है और उपभोक्ता के तौर पर हमारे लिए खरीदारी करना आसान हो जाता है।
  • ऐसे ही हर चीज के विज्ञापन आपको आज के युग में देखने को मिल जाएंगे चाहे वह जमीन का टुकड़ा हो या बड़े शहरों के फ्लैट, आभूषण, वस्त्रों या वाहन आदि हों ।
  • मुख्य रूप से विज्ञापन लेखन 2 प्रकार के होते हैं – लिखित और मौखिक।
  • सड़कों पर हमें पोस्टर या बैनर के रूप में विज्ञापन देखने को मिल जाते हैं।
  • आधुनिक युग में विज्ञापन एक व्यावसायिक क्रिया है, जिसे प्रत्येक व्यवसाय को किसी-न-किसी रूप में जोड़ना पड़ता है, ताकि व्यवसाय को बढ़ाया जा सके।

विज्ञापन की परिभाषा

 किसी उत्पाद अथवा सेवा को बेचने अथवा उत्पादन के उद्देश्य से किया जाने वाला जनसंचार विज्ञापन (Advertising) कहलाता है। विज्ञापन विक्रय कला का एक नियंत्रित जनसंचार माध्यम है जिसके द्वारा उपभोक्ता को दिखाई देने वाले एवं सुनाई देने वाली सूचना इस उद्देश्य से प्रदान की जाती है कि वह विज्ञापनकर्ता (विज्ञापन करने वाले) की इच्छा से विचार सहमति, कार्य अथवा व्यवहार करने लगे।

विज्ञापन अपनी छोटी-सी संरचना में बहुत कुछ समाये होते है। आज विज्ञापन हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है। विज्ञापन’ शब्द ‘वि’ और ‘ज्ञापन’ से मिलकर बना है जहाँ ‘वि’ का अर्थ ‘विशिष्ट’ तथा ‘ज्ञापन’ का मतलब सूचना से है।अतः विज्ञापन का अर्थ ‘विशिष्ट सूचना’ से है। आधुनिक समाज में ‘विज्ञापन’ व्यापार को बढ़ाने वाले माध्यम के रूप में जाना जाता है।

उदाहरण

विज्ञापन लेखन के लिए उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं, जो कि इस प्रकार है।

विज्ञापन लेखन
विज्ञापन लेखन
विज्ञापन लेखन
विज्ञापन लेखन

विज्ञापन से फायदे

विज्ञापन लिखने से उपभोक्ता और उत्पादक कंपनी दोनों को ही फायदा होता है। इसके अलावा जिन लोगों के लिए वह विज्ञापन बनाया जा रहा है उनके लिए भी काफी फायदेमंद होता है। 

  • उत्पादक कंपनी विज्ञापन के जरिए वस्तुओं की ज्यादा बिक्री कर पाती हैं और ज्यादा लोगों तक अपने उत्पाद को पहुंचा पाती हैं। 
  • अपने उत्पाद के गुणों की जानकारी उपभोक्ता के सामने आसानी से रख पाते हैं।
  • बाजार में एक ही वस्तु कई सारी कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं और हर कंपनी अपने द्वारा बनाए गए उत्पाद का विज्ञापन करती है जिससे उपभोक्ता को सभी उत्पादों की जानकारी हो जाती है। 
  • उपभोक्ता विज्ञापन के माध्यम से बेहतरीन वस्तु को कम दाम में खरीद पाता हैं। यानि विज्ञापन उत्पाद कंपनी और उपभोक्ता दोनों के लिए फायदेमंद है।

विज्ञापन लेखन कैसे करें

विज्ञापन लेखन करते समय निम्न बातो का ध्यान रखना चाहिए–

  1. एक बॉक्स-सा बनाकर ऊपर मध्य में विज्ञापित वस्तु का नाम मोटे व बड़े अक्षरों में लिखना चाहिए।
  2. दाएँ एवं बाएँ किनारों पर सेल धमाका, खुशखबरी, खुल गया जैसे लुभावने शब्दों को लिखना चाहिए।
  3. बाईं ओर बीच में विज्ञापित वस्तु के गुणों का उल्लेख करना चाहिए।
  4. दाहिनी ओर या मध्य में वस्तु का बड़ा-सा चित्र देना चाहिए।
  5. लिमिटेड ऑफर ,स्टॉक सीमित या जल्दी करें जैसे रोचक शब्दों का प्रयोग किसी डिजाइन में होना चाहिए।
  6. मुफ़्त मिलने वाले सामानों या छूट का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए।
  7. ऊपर की जगह में कोई छोटी-सी तुकबंदी, जिससे पढ़ने वाला आकर्षित हो जाए।
  8. संपर्क करें/फोन नं. का उल्लेख अवश्य करें, जैसे- 0744-23456789 आदि। अपना निजी  नं. देने से बचना चाहिए।

विज्ञापन कितने प्रकार के होते हैं? 

वर्तमान समय में विज्ञापन के कई रूप हमारे सामने आते है इनको निम्नलिखित प्रकारो में रखा जा सकता है।

  1. अनुनेय विज्ञापन (Persuasive advertisement)
  2. सूचनाप्रद विज्ञापन (Informative Advertisement) 
  3. सांस्थानिक विज्ञापन (Institutional Advertisement) 
  4. औद्योगिक विज्ञापन (industrial Advertisement) 
  5. वित्तीय विज्ञापन (Financial Advertisement) 
  6. वर्गीकृत विज्ञापन (Classified Advertisement) 
  1. अनुनेय विज्ञापन- विज्ञापन के माध्यम से जनता अथवा उपभोक्ता तक पहुंच कर उन्हे अपनी ओर आकर्षित करने, रिझाने और उत्पाद की प्रतिष्ठा तथा उसके मूल्य को स्थापित किया जाता है। इस प्रकार के विज्ञापन तब प्रसारित किये जाते है,जब निर्माता का उद्देश्य ग्राहकों के मन में अपनी वस्तु का नाम स्थापित करना होता है और उम्मीद कि जाती हैं कि ग्राहक इसे खरीदेगा। विज्ञापन विभिन्न माध्यमों के आधार पर विशिष्ट उपभोक्ताओं को अपने उद्देश्य के लिये मनाने की इच्छा रखते है।जैसे- किसी वस्तु को बेचने के लिए उसका विज्ञापन देना। 
  2. सूचनाप्रद विज्ञापन- इस प्रकार के विज्ञापन सूचनाओं को प्रसारित करने एवं व्यापारिक अभिव्यक्ति के रूप में सामने आते है। साथ ही इन विज्ञापनों का उद्देश्य जनसाधारण को शिक्षित करना, जीवन स्तर ऊंचा करना, सांस्कृतिक व सामुदायिक विकास सुधार,अंतरराष्ट्रीय सद्भावना, वन्य प्राणी सुरक्षा, यातायात सुरक्षा आदि क्षेत्रों में जन-साधारण की भलाई के उद्देश्य से सूचना प्रदान कर जागरूकता उत्पन्न करता है।
  3. सांस्थानिक विज्ञापन- सांस्थानिक विज्ञापन व्यावसायिक संस्थानों जैसे कॉलेज, कोचिंग,स्कूल आदि द्वारा प्रकाशित व प्रचारित कराये जाते है।संस्थाओं के रूप में बड़े-बड़े उद्योग समूह अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर की कंपनियां आदि विज्ञापन प्रस्तुत कर राष्ट्रहित संबंधी जनमत का निर्माण करती है। विज्ञापन की विषय-वस्तु नितान्त जन-कल्याण से संबंधित होती है किन्तु इसमें स्वयं का विज्ञापन भी शामिल होता है।इस तरह के विज्ञापनों का उद्देश्य बिक्री बढ़ाना न होकर लोगों को जानकारियाँ देना होता है
  4. औद्योगिक विज्ञापन- औद्योगिक विज्ञापन कच्चा माल, उपकरण आदि की क्रय में वृद्धि के उद्देश्य से किया जाता है, इस प्रकार के विज्ञापन प्रमुख रूप से औद्योगिक प्रक्रियाओं में प्रकाशित किये जाते है, इन विज्ञापनों का प्रमुख उद्देश्य सामान्य व्यक्ति को आकर्षित करना नहीं होता है बल्कि औद्योगिक क्षेत्र से संबंधित व्यक्तियों, प्रतिष्ठानों तथा निर्माताओं को अपनी ओर आकर्षित करना होता है।उदाहरणार्थ किसी बड़ी स्टील निर्माता कंपनी का विज्ञापन जो स्टील के सामान बनाने वाले छोटे उत्पादकों को लक्ष्य कर जारी किया जाता हैं। छोटे उद्योग भी अपना कच्चा माल बेचने के लिए इस तरह के विज्ञापनों का सहारा लेते हैं।
  5. वित्तीय विज्ञापन- वित्तीय विज्ञापन प्रमुख रूप से अर्थ से संबंधित होता है, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने शेअर खरीदने का विज्ञापन उपभोक्ताओं को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने से संबंधित विज्ञापन इसी श्रेणी में आते है।बैंक ,बीमा कंपनियां, वित्तीय संस्थाएं आदि अपनी वित्तीय गतिविधियों की जानकारी देने, शेयर जारी करने, पूंजी बाजार से पैसा उठाने आदि कामों के लिए इस तरह के विज्ञापन जारी करती हैं।इस तरह के विज्ञापनों के जरिए कंपनियां अपनी वित्तीय उपलब्धियां, अनुमानित लाभ और विस्तार योजनाओं आदि के बारे में बताती हैं
  6. वर्गीकृत विज्ञापन-वर्गीकृत विज्ञापन प्राय: स्थानीय आवश्यकताओं और सूचनाओं पर आधारित होते हैं।इस तरह के विज्ञापन, विज्ञापन के प्रारम्भिक स्वरूप हैं।इस प्रकार के विज्ञापन अत्यधिक संक्षिप्त, सज्जाहीन एवं कम खर्चीले होते हैं,जैसे- शोक संवेदना, ज्योतिष विवाह, बधाई, क्रय-विक्रय, आवश्यकता, नौकरी, वर-वधू आदि से संबंधित इस प्रकार के विज्ञापन समाचार पत्र में प्रकाशित होते हैं। 
  7. समाचार सूचना विज्ञापन- समाचार सूचना विज्ञापन,विज्ञापन का अपेक्षाकृत नया रूप है ऐसे विज्ञापनों को एडवरटोरियल (Advertorial) भी कहा जाता है। इसमें विज्ञापन को इस प्रकार तैयार किया जाता है कि वह किसी समाचार की तरह ही लगता है,इसका प्रकाशन भी समाचारों की तरह ही समाचारों के बीच में किया जाता है। 

विज्ञापन में क्या लिखना जरूरी होता है?

समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में जो सजावटी विज्ञापन दिखाई देते हैं उन्हें विज्ञापन लेखक तथा कलाकार या कंप्यूटर डिज़ाइनर द्वारा मिलजुल कर तैयार किया जाता है। किसी भी  विज्ञापन का लेआउट तैयार करने से पहले यह विचार किया जाता है कि विज्ञापन कैसा होना चाहिए ? उसमें क्या दिखाया जाना चाहिए? और विज्ञापन रंगीन होने चाहिए या हाथ से बनाई गयी कला  डिजाइन आदि। विज्ञापन का लेआउट तैयार करना एक पूरी योजना है जिसमें विज्ञापन के प्रत्येक तत्व को उपयुक्त जगह पर रखना होता है। 

  विज्ञापन लेआउट में निम्नलिखित तत्वों को चयनित किया जाता है-

  1. कॉपी- किसी भी विज्ञापन में लिखी जाने वाली समस्त सामग्री को ही कॉपी कहा जाता है। अतः विज्ञापन के अन्य जितने भी तत्व हैं जैसे- शीर्षक, उपशीर्षक आदि सभी कॉपी के ही भाग हैं। कॉपी लेखन बड़ी कुशलता का काम है एक अच्छे कॉपी लेखक को उत्पाद, खरीदार, वितरण आदि के लिए कॉपी तैयार करनी होती है, उनकी अवस्था,धर्म,शिक्षा आदि सभी की जानकारी होनी चाहिए। इसके अलावा बाजार में और कितनी कंपनियां उस उत्पाद को बेच रही है आदि की भी जानकारी होनी चाहिए । एक अच्छी कॉपी वह है जो संक्षिप्त हो, स्पष्ट हो और उपभोक्ता उसे पढ़कर आसानी से समझ सके। 
  2. शीर्ष पंक्ति (Headline) – हैडलाइन एक शब्द से  वाक्य तक हो सकती हैं तथा इसे बड़े बड़े अक्षरों में छापा जाता है। पाठक की नजर सबसे पहले इसी पर पड़ती है। शीर्ष पंक्ति अपना सारा संदेश एक ही नजर में पाठक के मन पर छोड़ देती है । शीर्ष पंक्ति इतनी प्रभावशाली होनी चाहिए कि पाठक को पूरा विज्ञापन पढ़ने की आवश्यकता ही ना हो। जैसे- ‘नया रूप नई काया’
  1. उपशीर्ष पंक्ति (Sub-headlines)– यह एक प्रकार से शीर्ष पंक्ति की पूरक होती है। इनकी छपाई का आकार शीर्ष पंक्तियों से छोटा तथा विज्ञापन के अन्य सामग्री से बड़ा होता है। इसका कार्य शीर्ष पंक्ति के कार्य को आगे बढ़ाना होता है। जैसे – शीर्ष पंक्ति- बचाइए 1000/-  तक उपशीर्ष पंक्ति- आप बस इतना करें अपने टीवी  का ऑर्डर आज ही दे दे। 
  2. विज्ञापन पाठ (Body Copy)– हेडलाइन तथा सब हेडलाइन से विज्ञापन की शुरुआती जानकारी ही प्राप्त होती है, पर उत्पाद के विषय में पूरी जानकारी देने तथा पाठक के मन पर असर डालने का कार्य विज्ञापन पाठ( Body Text) का होता है। यहां यह लिखा जाता है कि उस उत्पाद को क्यों और कैसे खरीदें? एक अच्छा विज्ञापन पाठ वह होता है जो पाठक यानी ग्राहक को ऐसी कार्यवाही के लिए मजबूर करें जिसकी अपेक्षा विज्ञापन लेखन ने की है विज्ञापन पाठ में स्पष्टता  निरंतरता होनी चाहिए।
  3. चित्र (Illustration) – चित्र विज्ञापन को आकर्षक बनाते हैं साथ ही भाषा की कमी को भी पुरा करते हैं।इसलिए विज्ञापनों में चित्रों की लोकप्रियता और उनकी उपयोगिता सर्वमान्य है। चित्रों के माध्यम से उद्योगों के योग को समझाया जा सकता है।विज्ञापन कितना बड़ा हो उसमें क्या दिखाया जाए, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि विज्ञापनकर्ता किस उद्देश्य को लेकर विज्ञापन तैयार कर रहा है। 
  4. व्यापारिक चिन्ह (Trademark)– ट्रेडमार्क वे होते हैं , जिनको कोई भी निर्माता कंपनी अपनी पहचान के लिए विज्ञापन में इस्तेमाल करती है। ट्रेडमार्क रजिस्टर कराए जा सकते हैं और यह हर कंपनी की निजी संपत्ति होते हैं। ट्रेडमार्क, ट्रेड नाम तथा ब्रांड नेम तीनों एक ही हो सकते। 
  5. हस्ताक्षर (Signature)– कोई भी कंपनी अपने उत्पाद को नकली उत्पादको से बचाने के लिए सिग्नेचर या लोगो का उपयोग विज्ञापनों में करती है।वस्तुतः यह व्यापारिक चिन्ह होते हैं जिन्हें रजिस्टर भी कराया जा सकता है। 
  6. सफेद जगह (White Space)– किसी विज्ञापन में जितना महत्व कॉपी और चित्र का होता है उतना ही महत्व खाली सफेद जगह का होता है। सफेद जगह के कंट्रास्ट में चित्र उभर कर आते हैं और यह एक सीमा में ही रखी जाती है।विज्ञापनकर्ता को इस खाली सफेद जगह का की भी उतनी ही कीमत चुकानी पड़ती है। 
  7. बॉर्डर (Border)– विज्ञापनों के लेआउट को और आकर्षक बनाने के लिए विज्ञापन के चारों ओर बॉर्डर बनाए जाते हैं।बॉर्डर बन जाने से विज्ञापन आसपास के विज्ञापनों से अलग दिखाई देता है। बॉर्डर भी रचनात्मक बनाए जा सकते हैं ,जैसे: चीनी मिल के विज्ञापन के बॉर्डर में गणों के छोटे-छोटे चित्र हो सकते हैं। 

विज्ञापन लेखन के उद्देश्य बताइये?

विज्ञापन हमेशा ही ‘लाभ’ के उद्देश्य को लेकर चलते हैं यों तो अधिकांशत: यह लाभ प्रस्तुतकर्ता को वस्तु के बेचने से होने वाला लाभ ही होता है पर कभी-कभी जनजागरण, माहौल, सेवा के बारे में विचारधारा, सामाजिक बदलाव, वैचारिक उत्थान, सरकारी रीति-नीति का प्रचार, राजनीतिक लाभ आदि वृहद उद्देश्यों के आधार पर भी विज्ञापन जारी किए जाते हैं। 

 विज्ञापन के उद्देश्य इस प्रकार हो सकते हैं :

  • उन सभी संदेशों का एक अंश प्रस्तुत करना जो उपभोक्ता पर प्रभाव डाल सकते हैंं।
  • विशेष छूट और मूल्य परिवर्तन की जानकारी देना , उपभोक्ता मांग में वृद्धि करना,खरीदने और अपनाने की प्रेरणा देना।
  • वस्तुओं, कंपनियों व संस्थाओं के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत होना।
  • समाज की एक प्रतिनिधि संस्था के रूप में उद्योग प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग होना।
  • वस्तु की बिक्री बढ़ाने में प्रभावशाली भूमिका निभाना।
  • एक प्रभावी मार्केटिंग औजार के तौर पर लाभकारी संगठनों और प्रबंधकों को अपना उद्देश्य पूरा करने में सहायता करना।
  • समाज की उभरती व्यावसायिक आवश्यकताओं को पूरा करना।
  • व्यावसायिक तौर पर जारी संदेशों के जरिए उपभोक्ताओं को लाभप्रद संबंधित व निश्चित सूचना प्रदान करना।
  • आर्थिक क्रिया को विभिन्न नियमों व कानूनों के अनुसार चलाना।

विज्ञापन की विशेषताएँ

  1. विज्ञापन सन्देश पहुंचाने का व्यापक माध्यम है, जिसके द्वारा सन्देश को बार-बार दोहराया जाता है। 
  2. विज्ञापन जनता के सामने सार्वजनिक रूप से सन्देश प्रस्तुत करने का साधन है। 
  3. विज्ञापन द्वारा एक ही सन्देश को विभिन्न प्रकार के रंगों, चित्रों, शब्दों, वाक्यों तथा लाइट से सुसज्जित कर जनता तक पहुंचाया जाता है, जो ग्राहक को स्पष्ट एवं विस्तृत जानकारी देता है। 
  4. विज्ञापन सदैव अव्यक्तिगत होता है अर्थात कभी कोई व्यक्ति आमने-सामने विज्ञापन नहीं करता।विज्ञापन मौखिक, लिखित, दृश्य तथा अदृश्य हो सकता है। 
  5. विज्ञापन के लिए विज्ञापनकर्ता द्वारा भुगतान किया जाता है।
  6. विज्ञापन के विविध माध्यमों को  विज्ञापनकर्ता अपनी सुविधानुसार उपयोग कर सकता है। 
  7. विज्ञापन का उद्देश्य नये ग्राहकों को जोड़ना तथा विद्यमान ग्राहकों को बनाये रखना होता है जबकि गैर-व्यावसायिक विज्ञापनों का उद्देश्य सामान्य सूचना देना होता है। 

विज्ञापन लेखन के टॉप कोर्स और यूनिवर्सिटीज ( Add )

डिग्री के स्तर के आधार पर, रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में कई तरह के कोर्स उपलब्ध हैं। बैचलर स्तर पर या मास्टर स्तर पर किए जाने वाले कोर्स छात्रों की पसंद, विशेषज्ञता और कौशल को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किए गए हैं, विज्ञापन लेखन भी रचनात्मक लेखन का हिस्सा है। कुछ लोकप्रिय रचनात्मक लेखन कोर्स यूनिवर्सिटी के अनुसार नीचे दिए गए हैं:

यूनिवर्सिटी सिटी कोर्स अवधि 
यूनिवर्सिटी ऑफ़ टांपा यूएसए Master of Fine Arts in Creative Writing2 साल 
वर्जीनिया टेक यूनिवर्सिटी यूएसएMFA in Creative Writing3 साल
एडिनबर्ग नेपियर यूनिवर्सिटी यूके MA Creative Writing 1 साल
लैंचेस्टर यूनिवर्सिटी यूकेMA Creative Writing1 साल
यूनिवर्सिटी ऑफ़ सॉउथम्पटन यूकेMA Creative Writing1 साल
ऑकलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्नोलॉजी नूज़ीलैण्ड Master of Creative Writing1 साल
मैक्वेरी यूनिवर्सिटी ऑस्ट्रेलिया Master of Creative Writing 1 साल
यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू साउथ वेल्स ऑस्ट्रेलियाMaster of Arts in Creative Writing2 साल
वेस्टर्न सिडनी यूनिवर्सिटी ऑस्ट्रेलियाMaster of Arts in Literature and Creative Writing1.5 साल
यूनिवर्सिटी कॉलेज डब्लिन आयरलैंड MA in Creative Writing1 साल

विज्ञापन लेखन के टॉप भारतीय कॉलेज 

विज्ञापन लेखन के लिए टॉप भारतीय कॉलेजों की सूची नीचे दी गई है:

  • खालसा कॉलेज, अमृतसर
  • गुरुचरण कॉलेज, सिलचर
  • सृष्टि मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट, डिजाइन एंड टेक्नोलॉजी, बैंगलोर
  • निर्मल हलोई कॉलेज, बारपेटा
  • गौतम बुद्ध गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, फैजाबाद
  • फिल्म और टेलीविजन की कला में रिसर्च केंद्र, नई दिल्ली
  • श्री अरबिंदो कला और संचार केंद्र, नई दिल्ली
  • नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा, दिल्ली 

विज्ञापन लेखन कोर्स के लिए योग्यता 

विज्ञापन लेखन के रचनात्मक लेखन कोर्स में एडमिशन लेने के लिए आवश्यक योग्यता नीचे दी गई है:

  • बैचलर डिग्री प्रोग्राम के लिए छात्रों को 12th में कम से कम 50%-60% अंक प्राप्त होने चाहिए।
  • अगर आप मास्टर्स के लिए अप्लाई करना चाहते हैं, तो आपको सम्बंधित विषय में बैचलर डिग्री को उत्तीर्ण करना जरूरी है।
  • विदेश में एडमिशन लेने के लिए एक अच्छा IELTS/ TOEFL स्कोर अंग्रेज़ी भाषा में कुशलता के रुप में होना आवश्यक है। 
  • विदेश में कुछ यूनिवर्सिटी मास्टर डिग्री में एडमिशन लेने के लिए आपके पास एक अच्छे GRE स्कोर की मांग करती है।
  • प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में रचनात्मक लेखन कोर्स में प्रवेश पाने के लिए, लेखन में पूर्व अनुभव या एक मजबूत पोर्टफोलियो की आवश्यकता होती है।

आवेदन प्रक्रिया 

विज्ञापन लेखन के रचनात्मक लेखन कोर्स में भारत और विदेश में एडमिशन लेने के लिए आवेदन प्रक्रिया नीचे दी गई है:

  • विश्वविद्यालय की ऑफिशियल वेबसाइट पर रजिस्ट्रेशन करें। यूके में एडमिशन के लिए आप यूसीएएस वेबसाइट (UCAS) पर जाकर रजिस्ट्रेशन करें। यहाँ से आपको यूजर आईडी और पासवर्ड प्राप्त होंगे।
  • यूजर आईडी से साइन इन करें और कोर्स चुनें जिसे आप चुनना चाहते हैं। 
  • अगली स्टेप में अपनी शैक्षणिक जानकारी भरें।  
  • शैक्षणिक योग्यता के साथ  IELTSTOEFL, प्रवेश परीक्षा स्कोर, SOPLOR की जानकारी भरें। 
  • पिछले सालों की नौकरी की जानकरी भरें। 
  • रजिस्ट्रेशन फीस का भुगतान करें।
  • अंत में आवेदन पत्र जमा करें।
  • कुछ यूनिवर्सिटी, सिलेक्शन के बाद वर्चुअल इंटरव्यू के लिए इनवाइट करती हैं।

आवश्यक दस्तावेज

विदेश में एडमिशन लेने के लिए नीचे दिए गए डॉक्यूमेंट होने आवश्यक है:

विज्ञापन लेखन करते समय किन बातों का रखें ध्यान

नीचे आपको विज्ञापन लेखन के लिए किन बातों का रखें ध्यान के बारे में बताया जा रहा है, जो कि इस प्रकार है।

  • सबसे पहले एक बॉक्स बनाकर ऊपर मध्य में विज्ञापित वस्तु का नाम मोटे अक्षरों में लिखना चाहिए।
  • दाएँ एवं बाएँ किनारों पर सेल धमाका, खुशखबरी, खुल गया जैसे लुभावने शब्दों को लिखना चाहिए।
  • बाईं ओर मध्य में विज्ञापित वस्तु के गुणों का उल्लेख करना चाहिए।
  • दाहिनी ओर या मध्य में वस्तु का बड़ा-सा चित्र देना चाहिए।
  • स्टॉक सीमित या जल्दी करें जैसे प्रेरक शब्दों का प्रयोग किसी डिजाइन में होना चाहिए।
  • मुफ़्त मिलने वाले सामानों या छूट का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए।
  • ऊपर ही जगह देखकर कोई छोटी-सी तुकबंदी, जिससे पढ़ने वाला आकर्षित हो जाए।

विज्ञापन लेखन में विशेषणों का प्रयोग

विज्ञापन की भाषा में जहाँ शब्दों को सजा कर भाषा में पेश किया जाता है। वहीं विशेषणों का भी काफी प्रयोग किया जाता है। वस्तु की विशेषता को एक अथवा अधिक विशेषणों द्वारा वर्णित किया जाता है। जैसे-

केवल एक विशेषण का प्रयोग

  • त्वचा में ज्योति जगाए – रेक्सोना
  • गोरेपन की क्रीम – फेयर एंड लवली
  • एक टूथपेस्ट मसूड़ों के लिए – फॉर्हेन्स
  • मजेदार भोजन का राज – डालडा
  • ताजगी का साबुन – लिरिल
  • सुपररिन की चमकार ज्यादा सफ़ेद

दो विशेषणों का प्रयोग

  • खून को साफ़ करके त्वचा को निखारे-हमदर्द की साफी
  • पाँच औषधियों वाला पाचन टॉनिक-झंडु पंचारिष्ट
  • बेजोड़ चाय, किफ़ायती दाम-रेड लेबल चाय
  • ताजगी व फुर्ती के लिए हॉर्लिक्स
  • आप अपना वक्त और ईंधन बचाइए, युनाइटेड प्रेशर कुकर लाइए।
  • दूध की सफ़ेदी निरमा से आए,
  • रंगीन कपड़ा भी खिल-खिल जाए।

तीन या अधिक विशेषणों का प्रयोग

  • मुझे चाहिए एक साफ, स्वच्छ स्नान-100% संपूर्ण नया डैटॉल सोप
  • अलबेली और निराली, ज्यादा गारंटी वाली-टाइमस्टार घड़ी
  • डबल डायमंड चाय
  • स्वाद में, तेज़ी में, आपके ख्यालों सी ताजगी
  • भीनी-भीनी सुगंध युक्त
  • चिपचिपाहिट रहित केश तेल
  • स्वस्थ केश-सुंदर केश (केयो कार्पिन केश)

विज्ञापन लेखन कक्षा 9

अब आइए कक्षा 9 से संबंधित कुछ विज्ञापन लेखन के उदाहरण देखते हैं और समझते हैं कि कक्षा 9 में किस तरह से अच्छा विज्ञापन लेखन लिखा जाए।

प्लाजा’ कार कंपनी के लिए एक विज्ञापन तैयार कीजिएं।

विज्ञापन लेखन

रॉयल टेलीविज़न’ बनाने वाली कंपनी के लिए विज्ञापन तैयार कीजिए।

विज्ञापन लेखन

सुविधा’ वाशिंग मशीन बनाने वाली कंपनी के लिए विज्ञापन तैयार कीजिए। “आधी आबादी को आराम पहुँचाने सुविधा वाशिंग मशीन आ गई है” अपने विज्ञापन में इस वाक्य का उपयोग करें।

विज्ञापन लेखन

विज्ञापन लेखन CBSE Class 10

विज्ञापन लेखन कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षाओं में पूछे जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिसमे 5 अंक निर्धारित होते हैं। विज्ञापन लेखन, लेखन की एक कला है। दरअसल, जब आप कोई विज्ञापन हिंदी में लिख रहे हों तो आपको उसे इस तरह प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए जिससे कि दर्शक आकर्षित हो जाएं। अतः कोशिश कीजिए कि आपका विज्ञापन लेखन आपके परीक्षक को अच्छी तरह से प्रभावित करे।

विज्ञापन लेखन के कुछ उदाहरण–

‘स्नेहा परिधान शो रूम’ को अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ानी है। वे सभी परिधानों पर 50% की छूट दे रहे हैं। इस संबंध में एक विज्ञापन तैयार कीजिए।

विज्ञापन लेखन

. ‘कान्हा डेयरी’ अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए एक विज्ञापन तैयार करवाना चाहते हैं। इस संबंध में आप उनके लिए

विज्ञापन लेखन कीजिए।

विज्ञापन लेखन

विज्ञापन लेखन के कुछ उदाहरण– सीबीएसई टॉपर उत्तर पुस्तिका के साथ

अपने पुराने मकान को बेचने के लिए एक विज्ञापन लिखे। सीबीएसई 2020 हिंदी ‘A’ – टॉपर उत्तर पुस्तिका

विज्ञापन लेखन

आपने एक नया वाटर पार्क बनाया है। शहर के लोगो को आकर्षित करने के लिए एक विज्ञापन तैयार करे। सीबीएसई 2019 हिंदी ‘B’ – टॉपर उत्तर पुस्तिका

विज्ञापन लेखन

स्कूली छात्रों द्वारा बनाये गए मोमबत्ती एवं दीप को बेचने के लिए एक विज्ञापन तैयार करे। सीबीएसई 2017 हिंदी ‘B’ – टॉपर उत्तर पुस्तिका

विज्ञापन लेखन

अतः अब आप अच्छी तरह से समझ गए होगे कि कक्षा 10 के लिए किस तरह विज्ञापन लेखन लिखा जाए। अब आप आसानी से अपनी बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं।

FAQs

प्रश्न 1: विज्ञापन लेखन के मोटे तौर पर कितने प्रकार होते हैं?

उत्तर: विज्ञापन के प्रकार, विज्ञापन कितने प्रकार के होते हैं, विज्ञापन के मुख्य प्रकार कितने हैं,

वर्गीकृत विज्ञापन
सजावटी विज्ञापन
वर्गीकृत सजावटी विज्ञापन
समाचार सूचना विज्ञापन
उपभोक्ता विज्ञापन
औद्योगिक विज्ञापन
वित्तीय विज्ञापन
व्यापारिक विज्ञापन

प्रश्न 2: विज्ञापन कितने प्रकार के होते हैं कक्षा 7?

उत्तर: विज्ञापन के कारण समाज में दो तरह के उत्पाद उपलब्ध होते हैं। एक ब्रांड उत्पाद और दूसरा स्थानीय उत्पाद।

प्रश्न 3: अच्छा विज्ञापन कैसे बनाएं?

उत्तर: विज्ञापन बनाएं

अपने प्रचार के बारे में साफ़-साफ़ जानकारी दें
प्रासंगिकता का ख्याल रखें
हेडलाइन का विवरण से मिलान करें
अपने विज्ञापन का अपने लैंडिंग पेज से मिलान
पक्का करें कि आपके विज्ञापन मंज़ूर हो चुके हैं

प्रश्न 4: विज्ञापन शब्द में कौन उपसर्ग लगा है?

उत्तर: विज्ञापन = वि (उपसर्ग) + ज्ञापन (किसी वस्तु आदि के प्रचार के लिये किया जाने वाला कार्य।

प्रश्न 5: विज्ञापन शिक्षक का क्या मतलब है?

उत्तर: सब लोगों को दी जाने वाली सूचना; इश्तहार 2. जानकारी कराना; सूचित करना 3. प्रचारार्थ दी जाने वाली सूचना; (एडवरटाइज़मेंट)।

स्रोत:- https://leverageedu.com/blog/hi/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%A8-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%A8/